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________________ दिगम्बर जैन साधु ४४६ ] नेमिसागरजी । वि० सं० २०२४ के शुभ मिती मार्गशीर्ष शुक्ला १५ को आचार्य योगेन्द्र तिलक शांतिसागरजी महाराज द्वारा मुनिदीक्षा ग्रहण की । आपने लगभग १६ वर्ष की अवस्था से लिखना प्रारम्भ किया । आपने अपनी मनोवृत्तियों को शब्दों के माध्यम से व्यक्त किया । श्रापका गद्य एवं पद्य दोनों पर समान रूप से अधिकार रहा । आपकी कृतियां निम्नलिखित हैं : १ २ ३ ४ श्रावक धर्म दर्पण हरि विलास प्रतिष्ठासार-संग्रह आध्यात्म सार-संग्रह ५ कविता संग्रह ( स्वरचित ) अप्रकाशित सामाजिक क्षेत्र में आपने जो कार्य किए उनका विवरण सिर्फ इतना कह देने में ही पूर्णरूपेण दृष्टिगोचर होने लगता है कि क्षेत्र पपौरा, श्रहारजी एवं अनेक संस्थाओं के आप अधिष्ठाता, व्यवस्थापक एवं संचालक हैं । इन क्षेत्रों एवं संस्थाओं में आपने जितने भी कार्य किए हैं वे अवगुण्ठन नहीं हैं। - प्रकाशित प्रकाशित शास्त्राकार सजिल्द यह ग्रन्थ लगभग २००० पृष्ठों का होगा आपके संकल्प इतने अडिग हैं कि विरोधी तत्वों के अनेक विग्रहों, महादुर्मोच्य भयानक संकटों, शरीरिक आधि-व्याधियों तथा लोगों की दुर्जनतापूर्ण मनोवृत्तियों से भी आप टस से मस नहीं हुए । श्रनेकों तरह की आपदाओं ने श्रापको कर्तव्य पथ से डिगाना चाहा पर निर्भीक स्वात्म बल से श्रापको सदैव सफलता मिली । आपने अनेकों चातुर्मास किए, किन्तु श्री परम पावन अतिशय क्षेत्र देवगढ़ के भयानक बीहड़ जंगल में आपने जो चातुर्मास किया वह साहसिकता की दृष्टि से चिरस्मरणीय रहेगा | डाकुनों और जंगली जानवरों के भय से व्याप्त भीषण जंगल में एक दिगम्बर संत का एकाकी रहना प्राश्चर्य की बात नहीं तो और क्या हो सकती है किन्तु आश्चर्य हम संसारी लोगों को ही होता है आप जैसे संतों के लिए तो क्या पहाड़, क्या बीहड़ जंगल सब समान हैं । एक चोटी के विद्वान और महान् पद पर श्रासीन होते हुए भी आप अत्यन्त सरल विनम्र एवं शान्त स्वभाव वाले हैं । श्रापके जीवन में प्रदर्शन और प्राडम्बर तो नाममात्र को नहीं है ।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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