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________________ प्रथम तीर्थंकर - - ऋषभदेव - अनन्तानन्त आकाश में मध्य के ३४३ राजु प्रमाण पुरुपाकार लोकाकाश है। इसमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल ये द्रव्य पाये जाते हैं । यह लोक अकृत्रिम अनादिनिधन है । इसके तीन भेद हैं-अधोलोक, तिर्यग्लोक और ऊर्ध्वलोक । इस लोक के मध्य में तिर्यग्लोक में जम्बूद्वीप आदि असंख्यात द्वीप और समुद्र एक दूसरे को वेष्टित किये हुए हैं । प्रारम्भ में एक लाख योजन विस्तृत जम्बूद्वीप है । उसको वेष्टित करके दो लाख योजन व्यास वाला लवण समुद्र है। इसके अनन्तर घातकीखंड द्वीप, कालोदधि समुद्र प्रादि द्वीप समुद्र दूने-दूने विस्तार वाले होते चले गये हैं अन्त में स्वयंभूरमण समुद्र है। __ इस जम्बूद्वीप के बीच में एक लाख चालीस योजन ऊँचा और दस हजार योजन विस्तृत सुमेरु पर्वत है। अन्त में इसका अग्रभाग चार योजन मात्र रह गया है । इस जम्बूद्वीप में हिमवन, महाहिमवन, निपध, नील, रुक्मि और शिखरी ये छह पर्वत हैं । इनसे विभाजित भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ये सात क्षेत्र हैं । सबसे प्रथम भरतक्षेत्र का विस्तार ५२६११ योजन है भागे विदेह तक दूना-दूना होकर उससे आगे प्राधा-आधा होता गया है । विदेह के बीचोंबीच में मेरु पर्वत के होने से विदेह के पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह ऐसे दो भेद एवं मेरु के दक्षिण में देवकुरु और उत्तर में उत्तर कुरु माने गये हैं। भरत ऐरावत में कर्मभूमि, हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र में जघन्यभोग भूमि, हरि और रम्यक क्षेत्र में मध्यम भोग भूमि तथा देवकुरु और उत्तर कुरु में उत्तम भोगभूमि होती है। पूर्व विदेह एवं पश्चिम विदेह में शाश्वत कर्मभूमि की व्यवस्था है। छह द्रव्य :-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह द्रव्य हैं। इसमें जीव द्रव्य चेतन है बाकी पाँच अचेतन हैं।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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