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________________ ३८८ ] दिगम्बर जैन साधु क्षुल्लक श्री रतनसागरजी महाराज कषायों का रंग समय पाकर छूट जाता है पर चम्बल के पानी की यह खूबी है कि पियो तो मन पक्का हो जाता है । दृढ़ता की सुगन्ध से सनी मिट्टी में मचलता बचपन जब कुछ करने की ठान लेता है तो साध पूरी करने के लिए अंतिम सांस तक मचलता ही रहता है । इस राह में उसे हर रुकावट मात्र खिलौना प्रतीत होने लगती है । सोनी (भिण्ड ) ग्राम के निवासी इस तथ्य से भली भांति परिचित हैं । दुर्दान्त दस्युओं के शोर को विराग के घोष से क्षीण कर देने वाले श्रावकों के थोड़े से घर इस गांव में भी हैं । श्री श्यामलाल राजमती गोलालारे दम्पत्ति के घर में भाद्र कृ० ८ सं० १९८५ को एक ऐसे नररत्न का जन्म हुआ जिसका नाम रामचरण रखा गया। रामचरण को tes की गूंज नित्यप्रति देखने-सुनने को मिलती रहती थी जिससे उसका कोमल हृदय संसार से विरक्त हो उठा । साधुओं की संगति और तीर्थाटन उसकी प्रमुख रुचि बन चली । आचार्य श्री महावीरकीर्तिजी म० का सान्निध्य पाकर तो गृह त्याग के भाव प्रबल हो उठे । सुजानगढ़ में प्राचार्य श्री विमलसागरजी महाराज से कार्तिक कृष्ण अमावस्या सं० १९२५ ( सप्तम प्रतिमा के व्रत लिये तथा कार्तिक पूर्णमासी) को विशाल जनसमुदाय के समक्ष क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की। आचार्य श्री ने आपका नाम "रतनसागर" रखा । गुरु के साथ रहकर वैयावृत्ति करते हुए तथा शास्त्राभ्यास करते हुए रत्नत्रय की आराधना में निमग्न हैं । आपने अब तक निम्नलिखित स्थानों में चातुर्मास करके धर्मं उद्योत किया - दिल्ली, सम्मेद शिखर, जयपुर, खानियां, इटावा, आवागढ़, निवाई, सुजानगढ़, आनन्दपुरकालू, अजमेर, ब्यावर आदि । सम्प्रति अनेक स्थानों में पूजा प्रतिष्ठा विधि-विधान कराते हुए धर्म प्रभावना कर रहे हैं ।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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