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________________ [ ३२ ] धर्म की मर्यादा को अक्षुण्ण बनाये रखने का श्रेय इन अपरिग्रही वीतरागी मुनिवरों को ही है जिन्होंने सिद्धत्व को प्राप्ति के लिए विशुद्ध दिगम्बरत्व को अंगीकार किया। आज जव कि इस कलिकाल में भौतिकवाद का तांडव हो रहा है। परम तपस्वी वीतराग स्वरूप संत सांसारिक भोगाकांक्षा, यशोलिप्सा आदि प्रिय प्रतीत होने वाली प्रवृत्तियों से विरत हो आत्म कल्याण हेतु आध्यात्मिक अखण्ड ज्योति के सहारे धर्म पथ पर चलकर जग के अज्ञानी एवं मोही जीवों को कल्याण का मार्ग दर्शा रहे हैं। मुनिवर स्वयं उदाहरण रूप संसार के सामने आकर संसार की नश्वरता एवं वस्तुस्थिति का प्रत्यक्ष दर्शन करा रहे हैं। इनका यह उज्ज्वल चरित्र कह रहा है कि शरीर का सौंदर्य क्या, यह तो नश्वर है । अपने आत्म सौंदर्य की ओर तो दृष्टिपात करो। इसकी अनन्त शक्ति को तो पहिचानो। लेकिन हम मोही जीवों की अांखों पर रागद्वेष एवं स्वार्थ का इतना मोटा परदा पड़ गया है कि हम सन्मार्ग की वांछा हो नहीं करते । इनका चरित्र मानव जीवन की पराकाष्ठा की महानतम झांकी है, जिससे प्रेरणा लेकर हम अपने चरित्र को ऊंचा उठा सकते हैं । सच्चे सुख के अन्वेषक, प्रात्म-शान्ति के पुजारी ऐसे पूज्य मुनिवरों के जीवन चरित्र हमारे लिए उस पुण्य पुस्तक की भांति है जिनमें हमारे कल्याण के अनन्त मंत्र, अध्यायों के रूप में लिखे हुए हैं। मुनिश्री एवं त्यागी वृन्द के चरणों में बैठकर जो सुना, संघस्थ ब्रह्मचारी गणों से जो जाना एवं पुस्तकों अथवा पत्रिकाओं में मुनि जीवन के सम्बन्ध में जो देखा, इन सबके योग से ही इन परिचयों का लेखन सम्भव हुआ। मेरे द्वारा इस परिचय ग्रंथ को रूखे-सूखे भोजन की भांति ही तैयार किया गया है । ग्रंथ जैसा जिस रूप में प्रकाशित है वह पाठकों के हाथ में है। इसमें बहुत सी त्रुटियां रही होंगी, जैसे जीवन परिचय सही है या नहीं, ब्लाक सही लगा है या नहीं, पर हमने अपनी जानकारी के अनुसार सही समझकर लिखा है यदि कुछ त्रुटियां रही हों या मिथ्या लिखा गया हो तो पाठक गण क्षमा करेंगे। जिन जिन महानुभावों को परिचय पत्र, पत्रावलियां और पत्रादि भेजे गये थे उन्हें स्मरण पत्र, प्रतिस्मरण पत्र, आग्रह पत्र और वार बार विनय पत्र लिख लिख कर भेजे । समाज के दैनिक साप्ताहिक पत्रों में अनेक बार सूचनाएं प्रकाशित कराई फिर भी अनेक साधुवृन्दों के परिचय प्रप्राप्त रहे । अतः मात्र पत्राचार के माध्यम से ही भटकता रहा। बहुत से बन्धुओं ने पुराने सन्दर्भो को दुहराते हुए उन्होंने हमें मना भी किया, बहुत बन्धुओं ने लम्बी-चौड़ी भूमिकाएं विज्ञापित कर परिचयात्मक ग्रंथ प्रणयन की योजना बनाई पर बीच में ही रह गया। यह ग्रंथ तैयार हो जाने पर तो
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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