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________________ more - - . . . . दिगम्बर जैन साधु [ ३२७ क्षुल्लक श्री इन्द्रभूषणजी महाराज उत्तर भारत में जब विप्लव की प्रांधी चली तो सभी धर्मों के आयामों को कुछ न कुछ क्षति पहुंची। जैन धर्म-साहित्य का इतिहास पढने वाले सभी पाठक पंचम काल के दुष्परिणामों से भली भांति अवगत हैं । मौर्य सम्राट के स्वप्नों में यह बात झलकी थी । उस समय भी दक्षिण को टिमटिमाती धर्मज्योति का रक्षा स्थल समझा गया । आज भी जैनधर्म की प्रभावना करने वाले अधिकांश साधु दक्षिण की ही देन है। तमिलनाडु के मद्रास जिले में टच्यूर एक छोटा सा कस्बा है । पुचामी नयनार श्रावक अपनी पत्नी पट्टममाल के साथ इसी ग्राम में रहकर धर्मसाधना STATE किया करता था। पुण्ययोग से २४ अक्टूबर १९१० को उसे एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम माणिक्य नयनार रखा गया । मणि की तरह ही निर्मल विचारों से उसका चित्त ओत-प्रोत रहता था। एक दिन गुरु-दर्शन से एकाएक उसके मन में वैराग्य का बीज अंकुरित हो उठा और उसने पू० विद्यासागरजी म. से सम्मेदशिखर के पादमूल में सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण कर लिये । विराग की चरम परिणति २० मई ७० को शमनेवाडी स्थान में पू० आ० श्री देशभूषणजी महाराज के पादमूल में पूरी हुई । गुरु ने आपको क्षुल्लक दीक्षा देकर क्षुल्लक इन्द्रभूषण महाराज आपका नाम रखा । यद्यपि आपकी शिक्षा प्राइमरी तक है फिर भी आपने अपनी लगन से शास्त्रों का अध्ययन करके मेरूमंदरा जीवसंबोधना ( तमिल-कन्नड ) ग्रन्थ लिखकर अपने ज्ञान का क्षयोपशम कर डाला । सम्प्रति आप सदुपदेशों से श्रावकों को लाभान्वित कर रहे हैं।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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