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________________ [ ३० ] सागरजी, आ० महावीर कीर्तिजी आदि आचार्य एवं मुनि वृन्द हुए हैं । वर्तमान में आचार्य शिरोमणि श्री धर्मसागरजी, आचार्य देशभूषणजी, प्राचार्य विमलसागरजी, प्राचार्य विद्यासागरजी, आ० सनमतिसागरजी, आ० क० श्रुतसागरजी, ऐलाचार्य श्री विद्यानन्दजी, मुनि दयासागरजी मुनि वर्धमानसागरजी आदि सैकड़ों साधु वृन्द हैं जो आत्म साधना के साथ जन कल्याण भी कर रहे हैं। धन्य हैं ऐसे वीतरागी साधुगण। हमारे देश में आज से १०० वर्ष पूर्व जैन मुनियों के दर्शन उतने ही दुर्लभ थे जितने कि एक निर्धन के लिए भूभाग से निकला धन । उसका कारण था कि जैन सम्प्रदाय अपनी दुर्वलतामों के कारण अपने कर्तव्य के साथ धर्म की मर्यादा को लुप्त करता जा रहा था। लोगों में धर्म के प्रति आस्था कम होती जा रही थी। मुनियों के दर्शन दुर्लभ थे। लोग त्याग शब्द से कोसों दूर रहते थे। ऐसे समय में आचार्यवर श्री चारित्र चक्रवर्ती तपोनिधि परम पू० समाधि सम्राट श्री शान्तिसागरजी महाराज ने अनेकों विपत्तियों, उपसर्गों को सहन करते हुए ज्ञान, चारित्र और तप के माध्यम से धर्म की मर्यादा को सुदृढ़ और कायम बनाकर जैन सम्प्रदाय में ऐसे आत्म कल्याणकारी मन्त्र को फूंका जिसके द्वारा जैन सम्प्रदाय की बढ़ रही पथ-भ्रष्टता आदर्श की ओर अग्रसर होने लगी। लोगों में जिन, जिनवाणी, दिगम्बर साधुओं एवं जैन धर्म के प्रति सच्ची प्रास्था जागृत हुई। धर्म प्रचार की दृष्टि से भी आचार्य शान्तिसागरजी ने महान कार्य किया दक्षिण भारत से उत्तर-भारत में उनका आगमन हुआ। यह उनकी दिगम्बर इतिहास में उल्लेखनीय यात्रा थी। इस यात्रा से पूर्व कई शताब्दियों तक दिगम्बर मुनियों का मुख्य विहार-स्थल दक्षिण भारत ही बना हुआ था । अतः उत्तर भारत में वर्षों से अवरुद्ध दिगम्बर मुनियों के आवागमन के मार्ग को उद्घाटित करने का श्रेय आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज को ही है। प्राचार्य शान्तिसागरजी के तपोमय जीवन ने दिगम्बर परम्परा को तेजस्विता प्रदान की है एवं उनके श्रमनिष्ठ जीवन से नए इतिहास का निर्माण हुआ है। __ आचार्य श्री की कठोर तप-साधना के साथ आदर्श चारित्र की छाप का प्रभाव अनेकों भव्य आत्माओं पर पड़ा। फलतः आचार्यवर वीरसागरजी जैसे पुण्य पुरुषों ने आपके श्री चरणों में झुककर उस पथ का अनुसरण किया जिस कल्याणकारी पथ पर आप चल रहे थे। गुरु परम्परानुसार प्राचार्यवर श्री वीरसागरजी महाराज ने जिस-प्रादर्श ज्ञान और चारित्र । की निर्मलता को स्वयं धारण कर धर्म को ज्योति को चमत्कृत किया उसका मूर्तिमान रूप अजि उनके द्वारा दीक्षित परम पूज्य दिगम्बर जैनाचार्य श्री शिवसागरजी महाराज में देखने को मिलाथा।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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