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________________ naampawaanem. . दिगम्बर जैन साधु [ २१३ मुनिश्री अभिनन्दनसागरजी श्री धनराजजी का जन्म शेषपुर (सलुम्बर-उदयपुर) ... में हुआ था। आपके पिताश्री अमरचन्दजी थे व माता रूपीवाई थी। आपकी जाति नरसिंहपुरा व गोत्र बोसा था। ' आपके तीन भाई व तीन बहिनें थी । आजीविका चलाने के .. लिए पान की दुकान थी। आप वाल ब्रह्मचारी थे । आपकी लौकिक शिक्षा कक्षा ८ वीं तक ही हुई किन्तु धामिक शिक्षा काफी है। आपने सत्संगति व उपदेशों के कारण वैराग्य लेने की सोची । संवत् २०२३ में मुनि श्री वर्धमानसागरजी से क्षुल्लक दीक्षा ले ली। फिर धर्मप्रचार करने के बाद सं० २०२५ में आपने आ० श्री शिवसागरजी से ऐलक दीक्षा ले ली । दीक्षा लेने के बाद आपने कई ग्रामों में भ्रमण करके धर्मोपदेश दिया। अन्त में सं० २०२५ में कार्तिक शुक्ला अष्टमी को मुनि श्री धर्मसागरजी से मुनि दीक्षा ले ली। आपने प्रतापगढ़, घाटोल, नठव्वा, गांमड़ी, दिल्ली, मुजफ्फरनगर, दाताय, श्रवणबेलगोला, प्रादि स्थानों में चातुर्मास किये। आपने तेल, नमक, दही प्रादि का त्याग कर रखा है । आपने अपनी अल्प अवस्था में ही देश व समाज को काफी धर्मामृत का पान कराया है। २३ वर्ष की आयु, सौम्य शान्त मुद्रा, ऐसी अवस्था में नग्न व्रत धारण कर उन्होंने तपोबल द्वारा मुनि धर्म का कठोरता से पालन किया व अपनी दिनचर्या का अधिकांश समय जैनागम के अध्ययन, अध्यापन में व्यतीत करते हैं। भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव पर उन्होंने दिल्ली के विभिन्न स्थानों पर प्रवचन करके बड़ी जागृति की है। श्रुतज्ञान का अचिन्त्य महात्म्य है । श्री जिनेन्द्र देव ने जिसे निरूपण किया है । अर्थ और पद रूप से जिसकी अंग पूर्व रूप रचना गणधर देवों ने की है । जिस श्रुतज्ञान के दो भेद हैं अंग पूर्व और अंग बाह्य । द्रव्य श्रुतज्ञान और भाव श्रुतज्ञान के भेद से श्रुतज्ञान के अनेक भेद हैं।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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