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________________ 168 ] दिगम्बर जैन साधु जब आचार्य शान्तिसागरजी महाराज का संघ खुरजा से दिल्ली आया था तब संघ को दिल्ली : लाने का श्रेय आपको ही था / उसका कारण आपकी अतुल श्रद्धा और भक्ति थी / . संघ दिल्ली में - 28 दिन रहा / इस अवधि में आपने अपनी धर्मपत्नी के साथ प्रतिदिन आहार दान का पुण्य संचय किया और इसी समय से आपमें धार्मिक भावना का प्रबलतम भाव उत्पन्न हुआ। आपकी धार्मिक भावना को सफलतम् एवम् उन्नतिकर वनाने का श्रेय क्षुल्लक श्री ज्ञानसागरजी महाराज को था। अब भी आप परम पूज्य क्षुल्लक ज्ञानसागर ( मुनि श्री सुधर्मसागरजी ) के प्रति अनन्त हार्दिक श्रद्धा रखते हुए उन्हें आदि गुरु एवं परम उपकारी मानते हैं। आपका सराफी का व्यापार अच्छी प्रगति पर रहा / आपने सांसारिक एवम् धार्मिक दोनों .. क्षेत्रोंमें मान्यतायें प्राप्त की। आपके द्वारा जो शास्त्र प्रवचन होता था वह हृदयग्राही होता था। . लोगों की श्रद्धा आपके प्रति काफी बढ़ गई थी जिससे जैन समाज में आपका पद प्रतिष्ठित व्यक्तियों की श्रेणी में गिना जाता था। जब हमारे देश का संविधान बनाया जा रहा था और उसमें जैन धर्म का स्थान हिन्दू धर्म के अन्तर्गत समाहृत किया जा रहा था तब आचार्य शान्तिसागरजी महाराज का संकेत पाकर इस सम्बन्ध में अन्य विद्वानों के सहयोग से अनेकों प्रमाण प्रस्तुत कर निश्चित करा दिया कि हिंदू एवं जैन धर्म परस्पर स्वतन्त्र धर्म हैं / यह एक दूसरे के आधीन नहीं हैं / फलतः विधान में यह मान्यता स्वीकार की गई / इसका समाचार जब सर्व प्रथम कुछ विद्वानों के साथ आप आचार्यश्री के पास ले. गए तो आचार्यश्री ने आपको आशीर्वाद देते हुए अन्न ग्रहण किया था। इस प्रकार आप समाज के बीच जन-प्रिय हुए, अतः आपको श्री दिगम्बर जैन सिद्धान्त प्रचारिणी समिति का मन्त्री मनोनीत किया गया। इस पद पर आपने और भी अनेकों कार्योंका अपनी प्रज्ञा के द्वारा सम्पादन किया। आपका व्यवसाय भी खूब चला तथा पारिवारिक स्थिति सम्पन्न हो गई, लेकिन काललब्धि ने आपके हृदय में परिवर्तन ला दिया और आपकी सांसारिक वैभवों के प्रति उदासीनता बढ़ने लगी / फलतः सन् 1931 में चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज के समीप बड़ौत में दूसरी प्रतिमा के व्रत धारण कर लिये / घर. आकर उदासीन वृत्ति से संयम पूर्वक रहने लगे / पश्चात् आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज जव. ससंघ सवाईमाधौपुर पधारे हुये थे तभी आपने आचार्यश्री से पांचवीं प्रतिमा के व्रत अङ्गीकार करते हुये ईसरी चातुर्मास के शुभावसर पर दीक्षित न होने तक घी न खाने की प्रतिज्ञा ली और फुलेरा में हुए पंच कल्याणक महोत्सव के
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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