SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दिगम्बर जैन साधु [ 167 व्रत की समाप्ति पर क्षमादिवस, रथ यात्रा आदि कार्यक्रम हो रहा था। एक सज्जन ने आपको उस उत्सवमें सम्मिलित होने का आमंत्रण दिया। भनेडा ग्राम के जिन मन्दिरजी में गए तो प्रथमतः दिव्य सौम्य, शान्त दिगम्बर छवि मुद्रा में भगवान जिनेन्द्रप्रभु की मूर्ति देखी तथा एक श्रावक को अत्यन्त शुद्ध निर्मल भावों से उस परम वीतरागी सर्वज्ञ प्रभु की पूजन करते हुए सुना जिसका प्रभाव आपके हृदय पटल पर पत्थर पर खींची गई रेखा के समान अमिट पड़ा। थोड़े समय बाद ही एक शास्त्र सभा में आप पहुँचे और शास्त्र वक्ता सतगुरु उपदेश के प्रसंग में रत्नकरण्ड श्रावकाचार का निम्नलिखित श्लोक सुनने को मिला "भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिगिनाम् / प्रणामं विनयं चैव न कुय्यु: शुद्धदृष्टयः // " इस श्लोक को सुनकर विचार किया तो सुगुरु और कुगुरु एवम् परिग्रही एवम् निष्परिग्रही का अन्तर स्पष्ट समझ में आ गया, आपने जीवन पर्यंत कुगुरु को नमस्कार न करने की प्रतिज्ञा ली। जव पाप 20 वर्षके थे उसी समय थी जुगलकिशोरजी अग्रवाल ने जैन धर्म का प्रारम्भिक ज्ञान, दर्शन पाठसे छह ढाला तक का देते हुए देहलो में किराये पर अपना मकान देते हुये आश्रय दिया। आपके प्रथम गुरु यही थे जिनकी छत्र-छाया में जैन धर्म के प्रारम्भिक ज्ञान का अभ्यास किया। आपके दो पुत्र और दो पुत्रियाँ हैं / प्रथम पुत्रका नाम श्री जम्बूप्रसादजी और छोटे पुत्रका नाम श्रीमन्धरदासजी है / आजकल आपके दोनों पुत्र सब्जी मण्डी में कपड़े की दुकान करते हैं / आपके दोनों पुत्र योग्य, सुशील, प्राज्ञाकारी एवम् उदार प्रकृति के हैं / आपकी मां परम धर्मपरायण संयमी एवम् सरल स्वभावी थीं। आहार देनेमें उन्हें बहुत सन्तोप होता था और आप प्रायः मुनि, त्यागी, श्रावक आदि को आहार दान देती रहती थीं। जव आचार्यवर श्रीशान्तिसागरजी महाराज का संघ मथुराजी में आया हुआ था तब आपको महाराजश्री के दर्शन करने का सौभाग्य मिला तथा जीवन में प्रथम बार मुनि को आहार देने का अवसर मिला / इसी अवसर पर आपने जीवन पर्यंत शूद्र जल का त्याग कर दिया।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy