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________________ दिगम्बर जैनाचार्य परम पूज्य १०८ श्री धर्मसागरजी महाराज का आशीर्वाद दिगम्बर चर्या अपने आप में इतनी महान और कठोर है कि सहज कोई व्यक्ति इसको धारण करने का साहस नहीं कर पाता और इस कलिकाल में तो रत्नत्रय धारी दिगम्बर साधु की चर्या का प्रतिपालन और भी कठिन होता जा रहा है, फिर भी ऐसी पुण्य आत्माएँ हुई हैं, हो रही हैं और पंचम काल के तीन वर्ष साढ़े आठ माह शेप रहने तक होती रहेंगी। मानव स्वभाव अनुकरणीय है इसी कारण हम अतिशीघ्र पाश्चात्य देशों के वैभव एवं वैज्ञानिक प्रसाधनों का अनुसरण कर अपनी गति को दिन दूनी रात चौगुनी वढ़ा रहे हैं। दिगम्बर साधु मोक्ष के मूक साधक होते हैं, ये अपनी ऋद्धियां, शक्तियां, ज्ञान, वैभव एवं विशिष्ट चारित्र आदि का प्रसार करने में उदासीन रहते हैं और उसके फलस्वरूप साधु के समाधिस्थ हो जाने के बाद उनके अनुपम गुणों का प्रायः विलोप सा ही हो जाता है उन महान तपोनिधि तपस्वी की धर्म, धर्मात्मा एवं समाज को जो देन है उसे चिरस्थाई बनाए रखने के उद्देश्य से ही व्र० धर्मचन्द्र शास्त्री का यह प्रयास प्रशंसनीय है । इनने परिश्रम कर वर्तमान में जितने भी साधु, साध्वियाँ, क्षुल्लक, क्षुल्लिकायें आदि हैं उनकी विशेष उपलब्धियाँ एवं जीवन परिचयादि का संकलन लेखन कर इसे तैयार किया है । __इस संस्करण से दिगम्वर तपस्वी भी जीवन्त के सदृश प्रत्यक्ष हो रहे हैं। समाज के धर्मप्रेमी बन्धु इसका अनुकरण कर साधु वनने का प्रयास कर सकेंगे, और वे परिवार भी जिनके घर से कुछ पीढ़ियों पहले ये महात्मा निकले हैं उनकी भावी पीढ़ी इस ग्रन्थ के माध्यम से अपने स्मृति पटल पर उन महापुरुषों को अंकित कर स्वयं भी उनका अनुकरण करते हुए उसी मार्ग पर चलने का प्रयास कर सकते हैं । इन सभी दृष्टियों से यह ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा। इसके संकलनकर्ता, लेखनकर्ता एवं प्रकाशक आदि के लिए हमारा यही आशीर्वाद है कि ऐसे उत्तमोत्तम प्रकाशन समय समय पर कराते रहें और मानव प्रकृति के अनुसार, उन्हीं महापुरुषों का अनुकरण कर मोक्ष मार्ग के पथिक बनें ।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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