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________________ दिगम्बर जैन साधु [ १३७ पपौराजीमें जो वेदना हुई वह अत्यन्त असह्य और दुःखदायिनी थी । पुनः आपको पेशाब रुक गई। अनेक बाह्य साधन जिनमें किसी भी प्रकार हिंसा न हो, अपनाए गए। किसीमें भी सफलता नहीं मिली । एक डाक्टरने प्राचार्यश्री से विनय की कि यदि महाराजको ध्यानावस्था या मूर्छावस्थाके. समय इंजेक्शन लगा दिया जाय तो आराम होनेकी सम्भावना की जा सकती है। आचार्य श्री से कहे गये उक्त शब्द मुनिश्री ने सुने और तुरन्त मुस्कराकर बोले "भइया साधुओंसे कभी जबरदस्ती नहीं की जा सकती । वे विश्व में किसी भी प्राणीके आधीन नहीं होते । उन्हें तो अपनी आत्माका कल्याण करना है । यदि आपने इन्जेक्शन लगा दिया या आपरेशन कर दिया तो ठीक है क्योंकि यह तो आपको करना है पर यदि मैंने समाधि ले ली तो? इस प्रश्नका उत्तर कुछ भी नहीं था, अतः डाक्टर साहब मौन रह अपनी बातका प्रतिकूल उत्तर पाकर एवं आपकी इस महान साधनाको देखकर अवाक रह गए। अनन्त वेदनाके होनेसे महाराजश्री मौन अवस्थामें लेटे हुए थे । अनेक विद्वान चारों ओर अत्यन्त वैराग्य युक्त व समाधि-मरण पूर्ण उपदेश व पाठ कर रहे थे। महाराजश्री अपने आत्मध्यानमें लीन रहते । जब तीव्र वेदनाका अनुभव होता तो मात्र एक दो बार करवट बदल कर उस घोर दुःखको सहन कर लेते थे । जो डाक्टर आये हुये थे आपको इस महान साधनाको देखकर हाथ जोड़े महाराजश्री के सामने बैठे हुए थे । इस सहनशक्ति को देखते हुये अनेकों नर-नारियोंकी आंखोंसे आंसू बह रहे थे। लोगों से वह वेदना देखी नहीं जाती थी। अन्तमें मुनिश्रीने अपनी आत्म-साधना एवं परिषह क्षमतासे मुक्ति पाई । आचार्यश्री ने जबकि आप इस वेदनासे पीड़ित थे आपके समीप वैठ जिस वैराग्य पूर्ण एवं संसारकी असारता तथा आत्म-कल्याणके उपदेश आपके समक्ष दिये वह अत्यन्त रोमान्चकारी एवं हृदय-ग्राही थे। उन्हें सुनकर जन-साधारणके ऐसे भाव होते थे कि धन्य है यह मुनि अवस्था और धिक्कार है इस संसारको ! भगवन् मैं भी इस अवस्थाको पाऊँ । धन्य है जिन्होंने मुनिपद धारण कर लेने पर भावों और क्रियासे पंच पापोंका त्याग कर दिया, क्रोध, मान, माया रूपी पतनकारी कषायोंसे पिण्ड छुड़ाया, तथा बहिरात्मा बुद्धिके बदले अन्तरात्मा बुद्धिसे आत्माको निर्मल बना लिया। इस प्रकार आत्म-कल्याण करते हुये आप अनेक आत्माओंको · इस पथका अवलोकन करानेमें तत्पर हैं। इस प्रकार मुनि जीवन यापन करनेमें आपको अनेक आपत्तियों, उपसर्गों और परीषहोंका सामना करना पड़ा लेकिन मुनिश्री सदा अपने आत्म-कल्याणके लक्ष्यमें इस प्रकार लवलीन रहे कि इन आपत्तियोंसे आपके तपोतेजमें वृद्धि ही हुई।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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