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________________ १३६ ] दिगम्बर जैन माधु क्षुल्लक दीक्षा के बाद आपका ध्यान आगम जान के आलोक में विचरने लगा। अल्प समय में अपनी तीक्ष्ण विवेकशीलता के द्वारा आपका ज्ञान आत्मा में आलोकित हो गया। आपने विचार किया कि प्रात्मा अनन्त शरीरों में रहा परन्तु एक भी शरीर आत्मा को नहीं रख सके। आत्मा और शरीर का यह दुःखदायी संयोग वियोग का अवसर कैसे समाप्त हो ? जव इस समस्या का समाधान स्वयं की विवेक शीलता के द्वारा जान लिया, तब आपने शीघ्र ही हजारों नर-नारियों के बीच अपूर्व उत्ताह पूर्वक समस्त अन्तरङ्ग बहिरङ्ग परिग्रह का त्याग कर भादों सुदी तीज सम्वत् २०१४ में शुभं दिन जयपुर खानियां में प्रातःस्मरणीय परम पूज्य आचार्यवर श्री वीरसागरजी महाराज के श्री चरणों में नमन कर आत्म शान्ति तथा विशुद्धता के लिये दिगम्बर मुनि का जीवन अङ्गीकार कर लिया। आपकी परम चारित्रशीला, धर्मानुरागिणी पत्नी भी ५ वीं प्रतिमा के व्रत अङ्गीकार कर धर्माराधन द्वारा आत्मकल्याण की ओर अग्रसर बन जीवनयापन कर रही हैं। मुनि दीक्षा के बाद आपका प्रथम चातुर्मास ब्यावर, दूसरा अजमेर, तीसरा सुजानगढ़, चौथा सीकर, पांचवां लाडनू एवं छटवां जयपुर में हुआ। जयपुर चातुर्मास के अवसर पर आपके ऊपर असह्य शारीरिक संकट आ पड़ा था, लेकिन आपने-अपने आत्मबल के द्वारा दुःखी भौतिक शरीर से उत्पन्न वेदना का परिषह शान्ति पूर्वक सहन कर विजय पाई । आपकी पेशाव रुक गई थी। किसी भी प्रकार वाह्य साधनों द्वारा उसका निकलना असम्भव था। इस विज्ञानवादी विकासोन्मुख युग में ऐसी अनेकों प्रौषधियाँ हैं जिनका सेवन कर या यांत्रिक साधनों द्वारा आपरेशन कर बड़े-बड़े दुःख क्षणमात्र में दूर किये जा सकते हैं, लेकिन आपने अपने तप बल, ज्ञान बल से जिस औषधि को पा लिया उसके सामने उपर्युक्त वाह्य औषधियां अपना मूल्य नहीं रखतीं, इसलिये आपने इन औषधियों व यन्त्रों के सेवन का त्याग कर दिया था और यही आपके त्याग की चरमसीमा का उत्कृष्ट एवम् अनुपम उदाहरण है। अन्त में जब दैव ने अपनी करतूत करली और मुनिश्री द्वारा इस कठोर वेदना को आत्म साधना द्वारा शान्तिपूर्वक सहन करते हुये देख हार मान गया तो स्वतः अविजयोसा होकर मुंह छिपाकर चला गया। __ आपने अनन्त वेदना को सहनकर अपने आत्मतेज एवम् कठिन परिषह सहने का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया। धन्य है ऐसी तपस्या को, ऐसे त्याग को एवम् ऐसी आत्मकल्याण की साधना को जिसमें चाहे सुख हो या दुःख, रोग हो या संकट, सभी में समानता रह सके । जब चातुर्मास अवधि समाप्त हो गई और जयपुर से विहार कर ससंघ बुन्देलखण्ड के पवित्र अतिशय क्षेत्र पपौराजो की वन्दना के लिए आये तो पुनः आपको इस रोग ने पीड़ा देना प्रारम्भ किया। इस बार
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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