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________________ प्राचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज TREE कृषि प्रधान भारत का स्वरूप ऋपि प्रधान रहा है। . यहाँ सत्ता, वैभव एवं ऐश्वर्य के उन्नत शिखर भी त्याग, वैराग्य एवं आत्मसाधना के चरणों में झुकते रहे हैं। . अनादिकाल से जीवन का लक्ष्य सत्ता व ऐश्वर्य नहीं किन्तु साधना व वैराग्य रहा है। भारतीय मस्तिष्क मूलतः शान्ति का इच्छुक है और शान्ति का उपाय त्याग व साधना है । यही कारण रहा है कि आत्मसाधना के पथ पर चलने . वाला साधक ही भारतीय जीवन का आदर्श, श्रद्धेय और वन्दनीय माना जाता रहा है। इस हुण्डावसर्पिणी काल के सर्वप्रथम सर्वोत्कृष्ट आत्मसाधक भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर पर्यन्त चतुर्विशति तीर्थंकर महापुरुषों की पावन परम्परा में अनेक महर्षियों ने अपनी आत्मसाधना की है और उनका आदर्श अद्यप्रभृति अक्षुण्ण बना हुआ है । भगवान महावीर के पश्चात् गौतमस्वामी से लेकर धरसेनाचार्य तक और उनके पश्चात् कुन्दकुन्दाचार्य आदि से लेकर अद्यप्रभृति महान आत्माएँ : इस पृथ्वी तल पर जन्म लेती रही हैं और आर्ष परम्परा के अनुकूल आत्मसाधना करते हुए अन्य भव्य प्राणियों को भी आत्मसाधना का मार्ग प्रशस्त कर रही है। इन्हीं महान धर्माचार्यों की परम्परा कुन्दकुन्दान्वय में ईस्वी सन् १९,वी. शताब्दि में एक महान आत्मा का जन्म हुआ और विश्व में चारित्र चक्रवर्ती श्री शान्तिसागरजी महाराज के नाम से जाने गये । आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज ने इस भारत भू पर अवतरित होकर ,१६-२० वीं शताब्दि में लुप्तप्रायः आगम विहीत मुनिधर्म को पुन: प्रगट किया एवं दक्षिण से उत्तर भारत की ओर मंगल विहार करके दिगम्बर मुनि का स्वरूप एवं चर्या जो मात्र शास्त्रों में वर्णित थी, को प्रगट किया। उन महर्षि की महती कृपा का ही यह फल है कि आज यत्र तत्र सर्वत्र दिगम्बर मुनिराजों के दर्शन, उपदेश श्रवण का लाभ समाज को प्राप्त हो रहा है। आचार्य शान्तिसागरजी महाराज के पश्चात् उन्हीं के प्रधान मुनिशिष्य श्री वीरसागरजी महाराज ने आचार्य पद ग्रहण किया एवं उनके
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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