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________________ दिगम्बर जैन साधु [ १०९ आचार्य स्वयं पंचाचार का परिपालन करते हैं और शिष्यों से भी उसका पालन करवाते हैं। शिष्यों पर अनुग्रह और निग्रह आचार्य परमेष्ठी की अनेक विशेषताओं में से एक विशेषता है। अतः आचार्य पद के नाते आप अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए इस बात का सदैव ध्यान रखते थे कि संघस्थ साधु समुदाय आगमोक्त चर्या में रत है या नहीं। आपकी पारखी. दृष्टि अत्यन्त सूक्ष्म थी, आत्मकल्याणेच्छुक कोई नवीन व्यक्ति संघ में आता और दीक्षा की याचना करता तो यदि वह आपकी पारखी दृष्टि में दीक्षा का पात्र सिद्ध हो जाता तो ही वह दीक्षा प्राप्त कर सकता था। जिस व्यक्ति को जनसाधारण शीघ्र दीक्षा का पात्र नहीं समझता वह व्यक्ति आचार्यश्री की दृष्टि से बच नहीं पाता था । उसकी क्षमता परीक्षण के पश्चात् ही उसे योग्यतानुसार क्षुल्लक, मुनि श्रादि दीक्षा आपने प्रदान की । विद्वानों का आकर्षण भी आपके एवं संघस्थ गहनतम स्वाध्यायी साधुओं के प्रति था इसीलिए प्रायः प्रत्येक चातुर्मास में संघ में कई-कई दिनों तक विद्वद्वर्ग आकर रहता था और सभी अनुयोगों की सूक्ष्म चर्चाओं का आनन्द लेता था। बातचीत के बीच सूत्ररूप वाक्यों के प्रयोग द्वारा बड़ी गहन बात कह जाना आचार्य श्री की प्रकृति का अभिन्न अंग था। कुल मिलाकर आचार्य श्री अपूर्व गुणों के भण्डार थे । वि० सं० २०२५ का अन्तिम वर्षायोग आपने प्रतापगढ़ में किया था। वहां से फाल्गुन माह में होने वाली शांतिवीर नगर महावीरजी की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में सम्मिलित होने के लिए आप ससंघ श्री महावीरजी आये थे। यहां आने के कुछ ही दिन बाद आपको ज्वर आया और ६-७ दिन के अल्पकालीन ज्वर में ही आपका समस्त संघ की उपस्थिति में फाल्गुन कृष्णा अमावस्या को दिन में ३ बजे लगभग समाधिमरण हो गया । आपके इस आकस्मिक वियोग से साधु संघ ने वज्रपात का सा अनुभव किया । ऐसा लगने लगा कि जिस कल्पतरु की छत्रछाया में विश्राम करते हुए भवताप से शान्ति का अनुभव होता था, उनके इस प्रकार अचानक स्वर्गवास हो जाने से अब ऐसी आत्मानुशासनात्मक शान्ति कहां मिलेगी ? वस्तुतः आचार्यश्री ने अपने गुरु के परम्परागत इस संघ को चारित्र व ज्ञान की दृष्टि से परिष्कृत, परिवधित और संचालित किया था। उन जैसे महान् व्यक्तित्व का अभाव आज भी खटकता है । आपके स्वर्गारोहण के पश्चात् वहां उपस्थित आपके गुरुभ्राता [प्राचार्य श्री वीरसागरजी के द्वितीय मुनिशिष्य ] श्री १०८ धर्मसागरजी महाराज को समस्त संघ ने संघ का नायकत्व सौंपकर अपना आचार्य स्वीकार किया। वे भी इस संघ का संचालन अपने प्रयत्न भर कुशलता पूर्वक कर रहे हैं । प० पू० महान् तपस्वी १०८ आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज के पावन चरणों में अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए अपनी विनम्र भावाञ्जलि समर्पित करता हूं।'
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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