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________________ दिगम्बर जैन साधु [१०७ निरन्तर ज्ञान-वैराग्य शक्ति की अभिव्यक्ति ने आपको निम्रन्थ-दिगम्बरं दीक्षा धारण करने के लिये प्रेरित किया । फलस्वरूप वि० सं० २००६ में नागौर नगर में प्राषाढ़. शुक्ला ११. को आपने आचार्य श्री वीरसागरजी के पादमूल में मुनिदीक्षा ग्रहण की । वर्तमान पर्याय का यह अापका चरम विकास था । अब आप मुनि शिवसागरजी थे। मुनिदीक्षा के पश्चात् ८ वर्ष पर्यंत गुरु-सन्निधि में आपकी योग्यता बढ़ती ही चली गयी। आपने गुरुदेव के साथ श्री सम्मेदशिखरजी सिद्धक्षेत्र की यात्रा वि० सं० २००९ में की। जब वि० सं० २०१४ में आपके गुरु का जयपुर खानियों में समाधिमरण पूर्वक स्वर्गवास हो गया तब आपको आचार्यपद प्रदान किया गया। इस अवधि में आपका ज्ञान भी परिष्कृत हो चुका था। आपने चारों अनुयोग सम्बन्धी ग्रन्थों का अध्ययन कर लिया था। तथा अनेक स्तोत्र पाठ, समयसार कलश, स्वयंभू स्तोत्र, समाधितंत्र, इष्टोपदेश आदि संस्कृत रचनाएं कंठस्थ भी कर ली थीं। मातृभाषा मराठी होते हुए भी आप हिन्दी अच्छी बोल लेते थे। .. वि० सं० २०१४ में ही आचार्यपद ग्रहण के पश्चात् आपने ससंघ गिरिनार क्षेत्र की यात्रा की। उसके बाद क्रमशः व्यावर, अजमेर, सुजानगढ़, सीकर, लाडनू, खानियां (जयपुर), पपौरा, महावीरजी, कोटा, उदयपुर और प्रतापगढ़ में चातुर्मास किये । इन वर्षों में आपके द्वारा संघ की अभिवृद्धि के साथ-साथ अत्यधिक धर्म प्रभावना हुई । ११ वर्षीय इसी आचार्यत्वकाल. में आपने अनेक भव्यजीवों को मुनि-आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक-क्षुल्लिका पद को दीक्षाएं प्रदान की तथा. सैंकड़ों श्रावकों को अनेकविध व्रत, प्रतिमा आदि ग्रहण कराकर मोक्षमार्ग में अग्रसर किया । आपके सर्वप्रथम दीक्षित शिष्य मुनि ज्ञानसागरजी महाराज थे । उसके अनन्तर आपने ऋषभसागरजी, भव्यसागरजी, अजितसागरजी, सुपार्श्वसागरजी, श्रेयांससागरजी सुबुद्धिसागरजी को मुनिदीक्षा प्रदान की । आपने: सर्वप्रथम आर्यिका दीक्षा चन्द्रमतीजी को प्रदान की। उसके बाद क्रमशः पद्मावतीजी, नेमामतीजी, विद्यामतीजी, बुद्धिमतीजी, जिनमतीजी, राजुलमतीजी, संभवमतीजी, आदिमतीजी, विशुद्धमतीजी, अरहमतीजी, श्रेयांसमतीजो, कनकमतीजी, भद्रमतीजी, कल्याणमतीजी, सुशीलमतीजी, सन्मतीजी, धन्यमतीजी, विनयमतीजी एवं श्रीष्ठमतीजी सबको आर्यिका दीक्षा दी । आपके द्वारा दीक्षित. सर्वप्रथम. क्षुल्लक शिष्य सम्भवसागरजी थे, साथ ही आपने शीतलसागरजी, यतीन्द्रसागरजी, धर्मेन्द्रसागरजी, भूपेन्द्रसागरजी व योगीन्द्रसागरजी को भी क्षुल्लक के व्रत दिए । क्षुल्लक धर्मेन्द्रसागरजी को उनकी सल्लेखना के अवसर पर आपने मुनिदीक्षा दी थी। ऐलक अभिनन्दनसागरजी आपके द्वारा अन्तिम दीक्षित भव्यप्राणी हैं। आपके अन्तिम शिष्य हैं । सुव्रतमती क्षुल्लिका भी आपसे ही दीक्षित थीं, इसके अतिरिक्त तीन भव्य .प्राणियों को उनकी सल्लेखना के अवसर पर आपसे मुनिदीक्षा ग्रहण करने का सौभाग्य मिला था। वे थे प्रानन्दसागरजी, ज्ञानानन्दसागरजी तथा समाधिसागरजी । इन तीनों ही साधुओं की सल्लेखना आपकी सन्निधि में ही हुई थी।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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