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________________ १०६ ] दिगम्बर जैन साधु औरंगाबाद जिले के ही ईरगांव वासी ७० हीरालालजी गंगवाल ( स्व. आचार्य श्री वीरसागरजी ) आपके शिक्षागुरु रहे । निकटस्थ अतिशयक्षेत्र कचनेर के पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन विद्यालय में आपका प्राथमिक विद्याध्ययन हुआ । धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ हिन्दी का तीसरी कक्षा तक ही आपका अध्ययन हो पाया था कि अचानक महाराष्ट्र प्रान्त में फैली प्लेग की भयंकर बीमारी की. चपेट में आपके माता-पिता का एक ही दिन स्वर्गवास हो गया । माता-पिता को वात्सल्यपूर्ण छत्रछाया में बालक अपना पूर्ण विकास कर पाता है, किन्तु आपके जीवन के तो प्राथमिक चरण में ही उसका . अभाव हो गया, इसका प्रभाव आपके विद्याध्ययन पर पड़ा । आपके बड़े भाई का विवाह हो चुका था, किन्तु विवाह के कुछ समय बाद ही उनका भी देहान्त हो जाने के कारण १३ वर्षीय अल्पवय में ही आप पर गृहस्थ. संचालन का भार आ पड़ा। कुशलता पूर्वक आपने इस उत्तरदायित्व को भी निभायाः। ___ माता-पिता एवं बड़े भाई के आकस्मिक वियोग के कारण संसार की क्षणस्थायी परिस्थितियों ने आपके मन को उद्वेलित कर दिया । फलस्वरूप, गृहस्थी बसाने के विचारों को मन ने कभी भी स्वीकार नहीं किया । विवाह के प्रस्ताव प्राप्त होने पर भी आपने सदैव अपनी असहमति ही प्रगट की । आप आजीवन ब्रह्मचारी ही रहे । २८ वर्ष की युवावस्था में असीम पुण्योदय से आपको आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज के दर्शन करने का मंगल अवसर मिला तथा उसी समय आपने यज्ञोपवीत धारण कर द्वितीय व्रत-प्रतिमा ग्रहण की। महामनस्वी चा० च० आचार्यश्री के द्वारा बोया गया यह व्रतरूप बीज आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज के चरण सानिध्य में पल्लवित पुष्पित हुआ। वि० सं० १९६६ की बात है, अब तक आपके आद्य विद्यागुरु ब्र० हीरालालजी गंगवाल आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज से मुनिदीक्षा ग्रहण कर चुके थे और मुक्तागिरि सिद्धक्षेत्र पर विराजमान थे। आपने उनसे सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण किये तथा ब्रह्मचारी अवस्था में संघ में प्रवेश किया। वाल्यावस्था से ही आपकी स्वाध्याय की रुचि थी। वह अव और तीव्रतर होने लगी अतः आप विभिन्न ग्रन्थों का अध्ययन करने लगे । "ज्ञानं भारः क्रियां विना" की उक्ति आपके मन को आन्दोलित करने लगी.। आपके मन में चारित्रः ग्रहण करने की उत्कट भावना ने जन्म लिया। प्राचार्य श्री वीरसागरजी महाराजा का जब सिद्धवरकूट सिद्धक्षेत्र पर ससंघ पहुंचना हुआ तब आपने वि० सं० २००० में क्षुल्लकदीक्षा ग्रहणः की । आपको क्षु० शिवसागर नाम प्रदान किया । अद्भुत संयोग रहा हीरालाल द्वय का । गुरु और शिष्य दोनों ही हीरालाल थे। यह गुरु-शिष्य संयोग वीरसागरजी महाराज की सल्लेखना तक निधिरूप से बना रहा।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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