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________________ ६४ ] दिगम्बर जैन साधु कर लिये । आपने कुल कार्यभार साझी पर ही छोड़ दिया व हर समय धर्मध्यान, स्वाध्याय आदि में ही समय व्यतीत करने लगे । सं० १९८६ का चातुर्मास आपने जयपुर (राज.) में श्री आचार्यवर्य के चरणों में ही व्यतीत किया । इसी वर्ष पं० चिरंजीलालजी जैन वैद्य को साथ लेकर आपने गिरनार, पालीताना आदि तीर्थों की यात्रा को थी। सं० १९६० का चातुर्मास व्यावर श्री प्राचार्य महाराज के चरणों में बिताया। वहां से श्रीसम्मेदशिखरजी पंचकल्याणोत्सव में पहुंचे । पुनः आपने निजी द्रव्य से श्रीपंचकुमारस्वामी की श्वेत पाषाण की एक प्रतिमा बहुत ही मनोज्ञ तैयार करवाई, प्रतापगढ़ (राज.) में पंचकल्याणक-विम्बप्रतिष्ठा-महोत्सव में पधारकर उसकी प्रतिष्ठा करवाई और अलवर के श्री दि० जैन अग्र० बड़े मंदिर में विराजमान की। उसी समय समस्त पंचों को एकत्रित कर नवीन वेदी बनवाने के अपने विचार प्रकट किये तो पंचों ने मंदिर में ही एक तरफ वेदी बनवाने की स्वीकृति आपको दे दी। __चैत्र शुक्ला १० सं० १९६१ के शुभ दिन वेदी के नीचे की नींव का मुहर्त पाप ही के करकमलों द्वारा बड़े ही समारोह के साथ हुआ। इसप्रकार आपने निजी न्यायोपार्जित द्रव्य का सदुपयोग किया। पंचकुमारस्वामी के दर्शन कर स्थानीय भौरेलालजी हलवाई के बहुत ही विणेप भाव चढ़ गये । इन्होंने उक्त वेदी के वनवाने में निजो दस हजार रुपया के लगभग सम्पत्ति लगाकर बड़ी ही रमणीक मंदिर में ही चैत्यालय के रूप में वेदी तैयार करवाई। पश्चात् वि० सं० १९६३ में वेदीप्रतिष्ठा बड़े ही समारोह से की गई । यह सब आप ही की महत् कृपा का फल था । वि० सं० १९६१ में उदयपुर में परमपूज्य श्री आचार्य-चरणों में ही चातुर्मास किया और शुभ मिती कार्तिक शुक्ला १३ को क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की । नाम-संस्करण 'चन्द्र-कीति' हुआ । यहाँ से आप श्रीमान् धर्म-वीर सेठ सखाराम जी दोशी के आग्रह एवं श्री आचार्य की आज्ञा से अन्य पूज्य क्षुल्लकों के साथ शोलापुर पंचकल्याणक महोत्सव में पधारे । आप तीर्थ-यात्रा के बड़े ही प्रेमी हैं । गृहस्थावस्था में ही तीन बार श्रीशिखरजी एवं गिरनारादि की वंदना आप कर चुके हैं तथा देहली, रेवाड़ी, गया, आगरा आदि अनेकों स्थानों की बिम्ब-प्रतिष्ठाओं में पहुंचे हैं। श्री महावीरजी की यात्रार्थ तो आप प्रति वर्ष ही जाते थे । आप बड़े ही परोपकारी एवं सहनशील हैं तथा खानपान क्रियाओं में पूर्ण शुद्धि के कट्टर श्रद्धा वाले हैं । आप श्रीआचार्य चरणों के परम भक्त हैं । आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है। भोजन के समय तो अत्यन्त ही वेदना रहती है, तथापि आप इसकी रंच-मात्र भी परवाह नहीं करते।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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