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________________ दिगम्बर जैन साधु [६३ आपके पूज्य चाचा गुलाबचन्द्रजी का स्वर्गवास हो गया। इनको सम्पत्ति के अधिकारी आप ही हुए, परन्तु आपने कुल सम्पत्ति से जैन धर्मशाला में, जो कि श्री दि० जैन अग्रवाल मन्दिर के सामने है, ऊपर अत्यन्त रमणीक विशाल कमरा वनवा दिया, जिसका नाम 'पानन्द-भवन है। आपका लक्ष्य सदैव जैन-जाति व धर्म की उन्नति की तरफ ही विशेष रहता था। दुकान पर भी प्रायः जैन व्यक्तियों को ही नौकर रखते थे और उनके साथ पूर्ण सहानुभूति व उनके सुख-दुःख में पूर्ण प्रेम रखते थे। आपके पास जितने भी व्यक्ति रहे, उन्होंने काफी उन्नति प्राप्त की तथा अव भी स्वतन्त्र कार्य कर रहे हैं और सदैव आपका ही गुणगान करते हैं । आपकी महान् उदारता का एक परिचय यह है कि 'श्री' दि० जैन औपधालय' अलवर में चिरंजीलाल "आनन्द" जैनाग्रवाल नाम के स० वैद्य थे। अलवर महाराजा की रजत-जयन्ती के समय औषधालय की वनौषधि.चित्र-प्रदर्शनी होने वाली थी, तब घर में इनकी वृद्ध माताजी को निमोनिया होगया, परन्तु आवश्यक कार्य से रात्रि को ही जयंती स्थान पर जाना पड़ा। सरदी का समय था । ८-१० दिन बाद ही इनको भी वायु का रोग हो गया। उस समय इनके कुटुम्ब वाले ( रिश्तेदार ) तो धन के लालच से कुछ भी सेवा-सुश्रुषा में कार्य न आये । उनके दिली भाव ये ही थे कि अच्छा है यदि मृत्यु होजाय । ये दुःखद समाचार आपको विदित हुए, तो आपने व स्थानीय प्रधानाध्यापक पं० जिनेश्वरदासजी जैन वैद्यशास्त्री ने निश दिन दो माहं तक अकथनीय परिश्रम किया । आपके कुटुम्बी एवं अन्य सज्जनों ने, आप दोनों धर्मवीरों को इनके पास आने में भी, यह रोग उड़ना है इत्यादि अनेकों भय वताये, परन्तु आपने अपना तन-मन-धन लगाफर . अनेकों वैद्य-हकीम-डाक्टरों से चिकित्सा कराई और उन्हें असाध्य रोग से बचाकर नवजीवन प्रदान किया। आरोग्य हो जाने पर आपने आग्रह करके अपनी ही दुकान में आधा साझा कर दिया था। अाप ही के सुप्रयत्न एवं कृपा से बाहर के कई अग्रवाल वैष्णव गृह भी जैनधर्म के अनुयायी एवं कट्टर श्रद्धानी (संस्कारित ) हो गए थे । कतिपय अलवर में ही आकर स्वतन्त्र व्यापार करते हुए धर्म में पूर्ण संलग्न हैं। ___ सं० १९८८ के कार्तिक में पूज्य प्रायिका श्री चन्द्रमतीजी का अलवर में शुभागमन हुआ। तव आपने दो प्रतिमाएं ग्रहण की । इसी समय परम पूज्य आचार्य श्री शान्तिसागरजी ( दक्षिण ). महाराज का संघ तिजारा आया, तब-आपने संघ को सानन्द व प्रभावना के साथ अलवर की तरफ लाने . की आयोजना की और प्रमुख व्यक्तियों को लेकर मोटर-लारी रिजर्व कर तिजारा पहुंचे। वहाँ पहुंचने के द्वितीय दिवस ही पूज्य आचार्यश्री को आहार-दान दिया। इसके हर्षोपलक्ष्य में आपने श्री. आचार्य महाराज की पूजन छपवा कर मुफ्त वितरण की । सघ को सानन्द अलवर लाये । शहर से दो मील दूर नशियांजी में संघ विराजा । आपने कुटुम्ब व मित्रगणों से भी रंच मात्र सम्मति न लो और प्राचार्य-चरणों में प्रातःकाल शुभ मिती चैत्र कृष्णा १३ सं० १९८८ को सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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