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________________ दिगम्बर जैन साधु [: ६५ पौष कृष्णा त्रयोदशी शनिवार पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में रात्रि के समय लिखी गई है वह महाराष्ट्र देश की अपेक्षा है । मरुस्थलीय और महाराष्ट्र के कृष्ण पक्ष में एक माह का अन्तर है । शुक्ल पक्ष दोनों के समान हैं अतः माघ कृष्णा त्रयोदशी कहो या पौष कृष्णा त्रयोदशी, दोनों का एक ही अर्थ है। बालक खुशालचन्द्र द्वितीया के चन्द्रवत वृद्धिंगत हो रहा था। जिस प्रकार चन्द्रमा.की वृद्धि से समुद्र वृद्धिंगत होता है उसी प्रकार खुशालचन्द्र की वृद्धि से कुटुम्बी जनों का हर्ष रूपी समुद्र भी बढ़ रहा था। विवाह : पत्नी वियोग : ब्रह्मचर्यव्रत : अभी खुशालचन्द्र ८ वर्ष के भी नहीं हुए थे कि पूर्वोपार्जित पाप कर्म के उदय से पिता की छत्रछाया आपके सिर से उठ गई । पिताश्री. के निधन से घर का सारा भार आपकी विधवा माताजी पर आ पड़ा । उस समय आपके बड़े भाई की उम्र २० वर्ष की थी । और छोटे भाई की चार वर्ष को । घर की परस्थिति नाजुक थी, ऐसी परिस्थिति में बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था कैसे हो सकती है, इसे कोई भुक्त भोगी ही जान सकता है। वालक खुशालचन्द्र की बुद्धि तीक्ष्ण थी किन्तु शिक्षण का साधन नहीं होने के कारण उन्हें छठी कक्षा के बाद १४ वर्ष की अवस्था में ही अध्ययन छोड़कर व्यापार के लिए उद्यम करना पड़ा। पढ़ने की तीव्र इच्छा होते हुए भी पढ़ना छोड़ना पड़ा ठीक ही. है, कर्मों की गति बड़ी विचित्र है । इस संसार में किसी को भी इच्छाएँ पूरी नहीं होती हैं। युवक खुशालचन्द्र की इच्छा क विपरीत कुटुम्बी जनों ने बीस वर्ष की अवस्था होने पर उसकी शादी कर दी। विवाह से आपको सन्तोष नहीं था, पत्नी रुग्ण रहती थी । डेढ साल बाद ही आपकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया । आपके लिये मानो "रवात् नो रत्नवृष्टि" आकाश से रत्नों की वर्षा ही हो गई, क्योंकि आपकी रुचि भोगों में नहीं थी। इस समय आप इक्कीस वर्ष के थे। अंग अंग में यौवन फूट रहा था, भाल देदीप्यमान था । तारुण्यश्री से आपका शरीर समलंकृत था अतएव कुटुम्बीजन आपको दूसरे विवाह बंधन में बांधकर सासांरिक विषय भोगों में फंसाने का प्रयत्न करने लगे। परन्तु खुशालचन्द्र की प्रात्मा अब सब प्रकार से समर्थ थी, सांसारिक यातनाओं से भयभीत थी अत:: आपने मकड़ी के समान अपने मुख की लार से अपना जाल बना कर और उसी में फंसकर. जीवन गँवाने की चेष्टा नहीं की। आपने अनादिकालीन विषयवासनाओं पर विजय प्राप्त कर आत्मतत्त्व : की उपलब्धि के लिए दुर्वलता के पोषक, दुःख और अशान्ति के कारण गृहवास को तिलाञ्जलि देकर दिगम्बर मुद्रा अंगीकार करने का विचार किया । अतः आपने ज्येष्ठ शुक्ला नवमी विक्रम संवत् १९६२ के दिन आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत स्वीकार कर लिया। खिलते यौवन में ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर आपने अद्भुत एवं महान वीरता का काम किया ।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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