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________________ धर्म : जीवन जीने की कला दुर्बल होते-होते विनष्ट हो जायगा । कभी अनवधानतावश उसका निरीक्षण न कर पाएं और परिणामतः वह हम पर हावी हो जाय तो उसे भी याद कर करके रोएं नहीं। बल्कि और अधिक सावधान रहने के लिए कृतसंकल्प हों और जागरूकता का अभ्यास बढ़ाएं । शुद्ध धर्म में प्रतिष्ठापित होने का यही वैज्ञानिक तरीका है। जिस अभ्यास से अपने कर्मों के प्रति जागरूकता और सावधानी बढ़ती हो वही शुद्ध धर्म का अम्यास है। जिस विधि से अपने कर्मों को सुधारने वाली चित्त-निर्मलता प्राप्त होती हो, वही धर्मविधि है । जब हम आत्म-निरीक्षण कर अनुभूतियों के बल पर देखते हैं तो पाते हैं कि प्रत्येक दुष्कर्म का कारण अपने चित्त की मलीनता है। कोई न कोई मनोविकार है । हम यह भी देखते हैं कि प्रत्येक विकार का कारण अपने ही अहम् के प्रति उत्पन्न हुई गहन आसक्ति है । जब-जब आसक्ति के अंधेपन में इस 'मैं' को अत्यधिक महत्व देकर इससे चिपक जाते हैं, तब-तब संकुचित दायरे में आबद्ध होकर मन मलीन कर कोई न कोई ऐसा कर्म कर लेते हैं जो कि परिणामतः अकुशल होता है। आत्मनिरीक्षण के अभ्यास द्वारा स्वानुभूतियों के बल पर ही यह स्पष्ट होता है कि जब-जब स्वार्थान्ध होकर हम विकारग्रस्त होते हैं, तब-तब औरों का अहित तो करते ही हैं, अपना सच्चा स्वार्थ भी नहीं साध पाते । और जब-जब इस अंधेपन से मुक्त रहते हैं, तब-तब आत्महित और परहित दोनों साधते हैं । आत्महित और परहित साधने का कर्म ही धर्म है । जहाँ आत्मलाभ के साथ-साथ पर-लाभ भी सधता हो, वहीं धर्म है। जहाँ किसी का भी अनहित होता हो, वहाँ अधर्म ही अधर्म है। आत्मोदय और सर्वोदय का सामंजस्यपूर्ण स्वस्थ जीवन ही धर्म है । आत्मोदय और सर्वोदय अन्योन्याश्रित हैं। ___ हमारे सत्कर्म और दुष्कर्म केवल हमें ही सुखी-दुखी नहीं बनाते । बल्कि हमारे अन्य संगी-साथियों को भी प्रभावित करते हैं । मनुष्य समाज के अन्य सदस्यों के साथ रहता है । वह समाज का अविभाज्य अंग है । समाज द्वारा स्वयं प्रभावित होता है और समाज को भी थोड़ा-बहुत प्रभावित करता रहता है । इसलिये धर्म साधन द्वारा जब हम नैतिक जीवन जीते हैं, दुष्कर्मों से
SR No.010186
Book TitleDharm Jivan Jine ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyanarayan Goyanka
PublisherSayaji U B Khin Memorial Trust Mumbai
Publication Year1983
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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