SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म क्या है ? औरों की भी सुख-शान्ति का कारण बनते हैं । हमारे निर्मल चित्त की तरंगें आस-पास के वातावरण को प्रभावित कर उसे यथाशक्ति निर्मल बनाती हैं । ३ अतः आत्म-दमन ही धर्म की सर्वांग सम्पूर्णता नहीं है । लेकिन धर्म धारण करने का पहला कदम यहीं से आरम्भ होता है । पहले तो संयम- संवर द्वारा ही हम कायिक और वाचिक दुष्कर्मों से विरत होवें और फिर सतत् अभ्यास द्वारा मानसिक दुष्कर्म से भी छुट्टी पा लें। मानसिक दुष्कर्मों से छुट्टी पाने का अर्थ है मानसिक विकारों से मुक्त हो जाना । विकार- विहीन निर्मल चित्त अपने सहज स्वभाव से ही कोई मानसिक, वाचिक या शारीरिक दुष्कर्म नहीं कर सकेगा । अतः मुख्य बात है अपने चित्त को विकारों से विमुक्त रखना । हम अपने प्रत्येक कर्म के प्रति जागरूक रहकर ही उसे दोषमुक्त रख सकते हैं । अपने चित्त और चित्त के विकारों के प्रति जागरूक रहकर ही उसे विकारमुक्त रख सकते हैं । उसके प्रति अनजान और मूर्छित रहते हुए हम उसे कदापि स्वच्छ नहीं कर सकते, उसकी स्वच्छता को कायम नहीं रख सकते । अतः अपने शारीरिक, वाचिक और मानसिक कर्मों का, अपने चित्त और चित्तवृत्तियों का सतत् निरीक्षण करते रहने का अभ्यास ही धर्म धारण करने का सही अभ्यास है | किसी भी कर्म के करने से पूर्व और करते समय हम यह जांच करें कि इस कर्म में हमारा तथा अन्यों का मंगल समाया हुआ है। अथवा अमंगल । यदि मंगल है तो वह काम करें और यदि अमंगल हो तो न करें। इस प्रकार भलीभांति विवेकपूर्वक जाच कर किया गया कर्म सर्व मगलमय ही होगा | अतः धर्ममय ही होगा । यदि कभी अनवधानतावश बिना जांच कि कोई कायिक या वाचिक दुष्कर्म हो गया, जो कि अपने तथा अन्यों के लिए अहितकर हुआ तो उसे लेकर प्रायश्चित् करते हुए रो-रोकर किसी अपराध ग्रंथि से ग्रस्त न हो जाएं, बल्कि शीघ्र से शीघ्र अपने किसी साथी साधक अथवा गुरुजन से मिलकर, उनके सम्मुख अपनी भूल प्रकटकर, उसे स्वीकार कर लें और उस भार से मुक्ति पाएं तथा भविष्य में और अधिक सावधान रहने के लिए कृत संकल्प बनें । चित्त के प्रति भी इसी प्रकार जागरूकता का अभ्यास बढ़ाएं । जव जव चित्त पर कोई विकार जागे, तत्क्षण उसका निरीक्षण करें । साक्षी की तरह निरीक्षण करने मात्र से वह
SR No.010186
Book TitleDharm Jivan Jine ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyanarayan Goyanka
PublisherSayaji U B Khin Memorial Trust Mumbai
Publication Year1983
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy