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________________ धर्म-दर्शन 'अपनी मुक्ति अपने हाथ' की सच्चाई को मानने का अर्थ अहंकारी बनना नहीं, बल्कि विनीतभाव से अपनी जिम्मेदारी को स्वीकार करना है। साधको ! मैं अपने तथा अपने परिचित हजारों साधकों के अनुभव के आधार पर कहता हूँ कि इस प्रक्रिया के अभ्यास मार्ग में कहीं कोई अलौकिक चमत्कार नहीं है। जो उपलब्धि होती है वह स्वयं अपने कठिन परिश्रम से ही होती है। मेरे पास मेरा मैला मानसिक आंचल है। सौभाग्य से यह विधि साबुन स्वरूप प्राप्त हुई। मैंने इस साबुन का जितना प्रयोग किया, उतना ही मैल धुला, अधिक नहीं। जितनी मात्रा में मैल बचे हैं उतनी मात्रा में दुख हैं ही । काम कुछ न करूँ अथवा जरा-सा ही करूं और मैल सारे धुल जायँ ऐसा कोई करिश्मा नहीं होता। वस्तुतः यह तो जीवन भर का काम है । सारे जीवन अपने आपके प्रति सजग सचेत रहना ही होगा। अप्रमत्त रहना ही होगा। सचमुच काम कठिन है । पर दूसरा कोई रास्ता भी तो नहीं । लेकिन हमारा भोलापन है कि हम कोई करिश्मे का रास्ता ढूढ़ते हैं। ऐसा करिश्मा जिसकी वजह से हमें कोई कठिन श्रम न करना पड़े और सफलता भी मिल जाय । ऐसी अवस्था में हम फिर कल्पना लोक की उड़ानें भरने लगते हैं। इतने मनीषियों द्वारा परम सत्य की खोज हो जाने के बाद यह तो स्वीकार करना ही पड़ता है कि हमारे दुःखों का कारण कोई देव या जगदीश्वर नहीं, हमारे अपने संचित कर्म-संस्कार ही हैं। परन्तु फिर आशा बाँधने लगते हैं कि हमारे द्वारा हजार दूषित कर्म करने के बावजूद भी कोई ऐसा सर्वशक्तिमान् और करुणा-सागर है जिसे किसी प्रकार प्रसन्न कर लें तो वह हमारे सारे दुखों को दूर कर देगा। इस आशा में फिर खुशामदें, भेट, चढ़ावे, का क्रम चल पड़ता है। हम नहीं जानते हम कर क्या रहे हैं ? अंधभक्ति के भावावेश में हमने जिस भगवान का निर्माण किया उस बेचारे की ही कैसी मट्टीपलीत कर रहे हैं ? कैसा है यह भगवान जो अपने मान-सम्मान से प्रसन्न होता है ? अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा प्रशस्तियों से फूलकर कुप्पा हो जाता है। जी हजूरी करने वाले खुशामदी लोगों पर कृपादृष्टि रखता है। भेंट चढ़ाने वालों पर अपनी महर बरसाता है। अपने प्रशंसक पर प्रसन्न होकर उसके काले को भी सफेद कर देता है। प्रवंचक अपराधी को निरपराधी के समकक्ष बैठा देता है। अहम् का पुतला ऐसा कि कोई भूले-चूके भी उसका नाम ले ले तो उसे झट
SR No.010186
Book TitleDharm Jivan Jine ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyanarayan Goyanka
PublisherSayaji U B Khin Memorial Trust Mumbai
Publication Year1983
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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