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________________ धर्म : जीवन जीने की कला चित्तधारा निर्मल हुई जाती है और जितनी-जितनी निर्मल होती है उतनी-उतनी सद्गुणों से स्वतः संपन्न होती जाती है। जब नितांत निर्मल हो जाती है तो सर्वथा सद्गुण सम्पन्न हो जाती है । इस प्रकार स्वानुभूतियों के बल पर उन सत्यशोधकों ने देखा कि रोग का मूलभूत कारण और उसके निवारण का उपाय क्या है ? निसर्ग ने अपने सारे राज, रहस्य उनके सामने खोलकर रख दिए। उन्होंने देखा कि सत्यशोधन के इस प्रक्रम में उनकी अपनी चित्तधारा आस्रवों से, मैल से मुक्त हो गई है। उन्होंने पाया कि जो-जो व्यक्ति इस अन्तनिरीक्षण और आत्मदर्शन के प्रक्रम को अपनाता है, वह-वह निर्मल-चित्त होकर दुःख-विमुक्त हो जाता है। सत्य-शोधन का यह प्रत्यक्ष लाभ मानव जाति की बहुत बड़ी उपलब्धि रही। कभी-कभी यह प्रश्न उठता है कि जैसे बाह्य भौतिक जगत के वैज्ञानिकों की खोज का लाभ उठाते हुए हम उनके द्वारा किए शोध प्रयोगों में से स्वयं नहीं गुजरते, हमें उनकी उपलब्धियों का सीधे लाभ मिलने लगता है, वैसे ही इस आंतरिक चैतसिक जगत की खोज का लाभ हमें स्वतः क्यों न मिले ? हम उनके द्वारा खोजी गई सच्चाई को मान लें। उसमें श्रद्धा जगा लें। बस, काम पूरा हुआ। हममें से प्रत्येक व्यक्ति उस शोध के प्रक्रम में से स्वयं क्यों गुजरे ? धर्म-दर्शन का अभ्यास स्वयं क्यों करे ? उत्तर यही है कि यह शोध प्रक्रम ही तो उनकी खोज थी। यही तो हमारे रोग का इलाज है। जब तक कोई स्वयं आत्मनिरीक्षण न करे, तब तक दुख-विमुक्त नहीं हो सकता। अपने चित्त के विकारों का स्वयं साक्षात्कार करके ही उनका उन्मूलन किया जा सकता है। यही तो औषधि है जिसका सेवन करना ही होता है। जैसे किसी चिकित्सा जगत के वैज्ञानिक ने खोज निकाला कि मलेरिया के रोग का अमुक कारण है और उस कारण का इलाज कुनैन की दवा है। अब कुनैन की दवा चाहे जितनी गुणकारी हो, उसे रोगी स्वयं सेवन करेगा तो ही मलेरिया से मुक्त होगा। इसी प्रकार विभिन्न प्रकार की विधियों में से भटकते हुए इन श्रेयार्थी साधकों ने धर्मदर्शन की दवा खोज निकाली जो कि हजार राम-वाण औषधि हो तो भी इसका सेवन तो अनिवार्य है ही। उन शुद्ध-बुद्ध-मुक्त महापुरुषों की तो इतनी ही कृपा है कि उन्होंने रास्ता ढूढ दिया। उस पर चलना तो हमें होगा ही। कोई अपने कंधे पर चढ़ाकर मंजिल तक पहुँचाने नहीं आएगा।
SR No.010186
Book TitleDharm Jivan Jine ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyanarayan Goyanka
PublisherSayaji U B Khin Memorial Trust Mumbai
Publication Year1983
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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