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________________ धर्म : जीवन जीने की कला जब सही कारण ही नहीं समझा तो रोग का इलाज कैसे होता ? जिन थोड़े से मनुष्यों ने इन अंध विश्वासों की अवहेलना की और सच्चाई की. खोज की, उन्हें अपने श्रम का उचित फल मिला । उन्होंने प्रकृति की सच्चाइयों के बहुत से रहस्य खोज निकाले । प्लेग, हैजा, चेचक जैसी महामारियों के सही कारण मालूम किए। मेधावी मानव ने इन रोगों के उन्मूलन में अपनी सारी शक्ति लगा दी । अकाल और बाढ़ देखकर असहाय हो हाथ जोड़ने के बजाय उसने अपनी बुद्धि लगायी और पुरुषार्थ जगाया। नदियों पर बाँध बाँधे गए । सत्य की खोज करने वाले इन मानव मनीषियों ने इसी प्रकार विभिन्न क्षेत्रों में अंधविश्वास की जड़ें खोदीं और मानव जाति को सुख-साधन-समृद्ध करने में लगे रहे । स्तुत्य है मानव का यह सत्यशोधक अभियान जो कि अब अन्तरिक्ष मापने के लिए अपना वामन कदम बढ़ा रहा है । ६० परन्तु इस बाह्य अन्वेषण से कहीं अधिक आवश्यक और महत्वपूर्ण रहा अपने आंतरिक अंतरिक्ष का अन्वेषण, अपने आप से सम्बन्ध रखने वाली निःमर्ग की सच्चाइयों की खोज । वे सच्चाइयां जिनकी वजह से हम दुःख - संतप्त हो जाते हैं और वे जिनकी वजह से हम दुःख - मुक्त हो सकते हैं । इनको न जानने की वजह से अपने दैनिक जीवन की कठिनाइयों का कारण इन देवी-देवताओं और जगदीश्वरों की रुष्टि पर, और निवारण उनकी तुष्टि पर आरोपित करने लगे । और इसीलिए जब-जब छोटा या बड़ा दुःख आया तो अपनी अबोध और भयभीत मनोस्थिति में हम उनकी मनौती मनाने लगे, उन्हें भेंट चढ़ाने लगे, उनके स्थानों की यात्रा पर जाने लगे, उनकी अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसाओं के स्तवन पाठ करने लगे । इन मनोकल्पित विधाताओं को प्रसन्न करने के लिए अनगिनत कर्मकांडों का सृजन और पालन करने लगे । परन्तु मानव-जाति का प्रबुद्ध वर्ग इस आंतरिक सत्य की खोज में लगा रहा । अनेक युगों में ऐसे अनेक ऋषि, मुनि, संत, ज्ञानी, बुद्ध, जिन हुए जिन्होंने अंतर के अंतरिक्ष की खोज कर करके यह सिद्ध किया कि हमारे दुःखों का मूल कारण और उसके उन्मूलन का उपाय हमारे भीतर ही है, कहीं बाहर नहीं । उन्होंने देखा कि इस चित्तधारा पर जब क्रोध, ईर्ष्या, भय, वासना, मात्सर्य आदि विकारों की विकृति आती है तो हम दुःख -संतप्त हो उठते हैं और यदि विकार दूर हो जायँ तो दुख से विमुक्त हो जाते हैं । उन्होंने खोजा कि
SR No.010186
Book TitleDharm Jivan Jine ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyanarayan Goyanka
PublisherSayaji U B Khin Memorial Trust Mumbai
Publication Year1983
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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