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________________ धर्म-दर्शन से अग्नि का दुरुपयोग करते हैं तो अपनी तथा औरों को हानि करते हैं और सदुपयोग करते हैं तो उसका भरपूर लाभ उठाते हैं। हमारे दुःख व दुःखनिरोध, हमारी नासमझी और समझदारी पर निर्भर करते हैं। निर्गुण, निराकर, व्यक्तित्व-विहीन, सर्वव्यापी, अनंत विश्व-विधान याने विश्व-धर्म में किसी के प्रति कोई पक्षपात का भाव है ही नहीं। यह विधान सब पर समानरूप से लागू होता है। जो इसमें समरस हुआ, वही दुःख-मुक्त हुआ। जितना-जितना समरस हुआ, उतना-उतना दुःख-मुक्त हुआ। जब तक हम इस सच्चाई को ठीक-ठीक समझते नहीं तब तक भटकते हैं और अपनी हानि करते हैं। ठीक-ठीक समझ लें तो भटकना छूट जाय । विधान याने धर्म पालने के प्रयास में लग जायँ। ताकि अज्ञानवश विधान-विरुद्ध कर्मों के आचरण से जो कष्ट उठा रहे हैं उनसे छुटकारा पा लें। ___ मोटे-मोटे तौर पर खान-पान, रहन-सहन से सम्बन्ध रखने वाले कुदरत के जो कानून कायदे हैं, उन्हें समझकर और उनके अनुसार चलकर हम शरीर से स्वस्थ रहते हैं। ठीक वैसे ही सूक्ष्मतर स्तरों पर जो कानून हैं उन्हें जानसमझकर और उनका पालन करके हम आंतरिक सुख-शांति हासिल कर सकते हैं। रोग का कारण नहीं जानेंगे तो उसका निवारण नहीं कर पाएंगे। कहीं और ही जा उलझेंगे जिनका रोग से दूर-परे का भी सम्बन्ध नहीं। यही अज्ञान है जो कि हमें रोग-मुक्त नहीं होने देता। रोग का सही कारण मालूम हो जाय और उस कारण के निवारण में लग जाय तो रोग-मुक्त होने में क्या संशय रहे ? ___ जब मानवीय ज्ञान और प्रतिभा अपनी शैशव अवस्था में थीं तो विस्मयविभोर मानव, प्रकृति के हर स्वरूप को रहस्य गुम्फित ही देखता था। उसके सौम्य स्वरूप से मुग्ध हो उठता था और प्रचंड स्वरूप से भयभीत । सही कारणों को न जानने की उस अवस्था में भयभीत मानव ने कल्पना के सहारे किसी अदृश्य देव के प्रकोप को प्रकृति की विनाशलीला का कारण समझा और अपनी सुरक्षा हेतु उसकी प्रसन्नता का याचक बना, उसकी प्रशंसा में गीत गाए, उसका पूजन-अर्चन किया, उसे अन्न-बलि ही नहीं, बल्कि निरीह-निरपराध पशुओं और मनुष्यों तक की बलि चढ़ाकर धरती को रक्त-रंजित किया। लेकिन
SR No.010186
Book TitleDharm Jivan Jine ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyanarayan Goyanka
PublisherSayaji U B Khin Memorial Trust Mumbai
Publication Year1983
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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