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________________ - होय अनंती इच्छा मन में तिन्हें हर्ष युत रोके । सोई सम्यक तपका धारी सो शिव सुख भव लोक ॥१७॥ निश्चय आराधन का भाई स्वरूप यह तुम जानो । दोउन को.उर भीतर घर के. करिये निज कल्यानो ॥ इन दोउन के धारे विन नहिं होगा तुम निस्तारा । भव सागरमें भवि जीवन कू इनका एक सहारा॥१८॥ यह सन्सार असार .यामें सार कंछु नाहि दिर्खाई . । मात पिता मुत.तिय वैभव संब देखत देख नसाई ॥ रक्षा करै: मरन से तुमरी ऐसो नाहिं दिखावै । विना बात निज रक्षा कारन क्यों पर कू अपनाये। १९ ।। अनंत काल से या जगमाही दुख ही दुख तुम भोगे । • यह जग सर्वदुखही का घर है'या तज मुख पाओगे । “रें मले जो कर्म किये हैं : नुमने या जग माही । तिनके फल तुम इकले भोगोऔर मोगता नाहीं ॥२०॥ देहं जीवं जब जुदं २ हैं तुमरे सुन ये मैया । फिर क्यों कर हों एक · तुम्हारे पुत्र पितादिक मैया ॥ घृणित वस्तु की देह बनी है यामें शुच कछु नाही । 'याते यासं प्रेम तजौ अव समझ सोच मनमाही॥२१ मन वच काय त्रियोग चले ते होय करम का आना । याहि तजो तुम मेरे भाई ये दुख देवै नाना ॥ जैसै वनै तिसी विधि आश्रव रोको मेरे भाई । याही के रोकन में अपनी जानो खूप भलाई ॥ २२ ॥ अपने आप करम जो कर नित सो काज न सर है। बत पूर्वक तम कर्म खिपात्रो जो पाओ शिव घर है।
SR No.010185
Book TitleDharm Jain Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarkaprasad Jain
PublisherMahavir Digambar Jain Mandir Aligarh
Publication Year1926
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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