SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 20 ) . अति व्याप्त है तथापि महा दुर्धरवीर्य को धर कर अध्यात्म योग में आरुढ होय काया का ममत्व तजता भया, विशुद्ध है बुद्धि जिसकी, तव शत्रुघन मधु की परमः शान्त दशा देख नमस्कार करता. भैया और कहता भया हे साधों ! मो अपराधी का अपराध क्षमा करो, देवों की अप्सरा. मधू का सं-: ग्राम देखने को आई थीं आकाश से कल्पवृक्षों के पुष्पों की वर्षा करती भई, मधू का वीर रस और शांत रस देख देव भी आशचर्य को प्राप्त भए फिर मधू महा धीर एक क्षण मात्र में मसाधि" मरण कर महा सुख के सागर में तीजे सन्तकुमार स्वर्ग में उत्कृष्ट देव भया और शत्रुघन मधु की स्तुति करता महा विवेकी ( मधुपुरी ) मथुरा में प्रवेश करता भया । गौतम स्वामी राजा भ ेशिक से कहे हैं कि प्राणियों के इस संसार में कर्मों के प्रसङ्ग कर नाना अवस्था होय है इस लिए उत्तमजम सदा शुभ. 'कर्म तज कर शुभ कर्म करो जिस के प्रभाव कर सूर्य समान कांत - को प्राप्त क्षेत्रे धर्म द्वारा शत्रु भी क्षण में नर सुख द्वारा पूज्य होवे है सोई सार जो धर्म ताहि: पहण करों।. . r · ॥ इतिः नृवासीव पर्व पूर्ण भया । ह
SR No.010185
Book TitleDharm Jain Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarkaprasad Jain
PublisherMahavir Digambar Jain Mandir Aligarh
Publication Year1926
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy