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________________ १. सामान्यलक्षण । २. ज्ञान लक्षण। ३. योग। २- अनुमान अनुमितिरूप प्रमिति का परामर्शात्मक व्यापार से युक्त कारण अर्थात् करण (साधन) को अनुमान प्रमाण कहते हैं। यानि- 'अनुमीयते अनेन इति अनुमानम'-जिससे अनुमिति की जाती है उस व्याप्ति ज्ञान को अनुमान कहते हैं। अनु+मान, इसमें 'अनु का अर्थ पश्चात और मान का अर्थ ज्ञान है अतः अनुमान का अर्थ है जो ज्ञान प्रत्यक्ष के पश्चात हो। इसीलिये गौतम ने अनुमान का प्राण व्याप्ति है-व्या सम्बन्ध में लिखा गया है- 'यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र वाहिरिति साहचर्य निर प्तः।' नित्य साहचर्य नियम को 'व्याप्ति' कहते हैं। जैसे-धूम और अग्नि में नित्य र्य सम्बन्ध है अतः इसमें व्याप्ति सम्बन्ध है। किन्तु वृद्धि और धूम में व्याप्ति स नहीं है, यथातप्तलौह पिण्ड। क्योंकि तपते हुये लोहे के गोले में वृद्धि तो है वि नहीं है। वृद्धि का धूम के साथ सम्बन्ध आद्रन्धन संयोग के कारण होता है और इस संयोग को उपाधि कहते हैं साध्यत्यापकः सन् साधनाऽव्यापक उपाधिः (कारिका० १३८)। अनुमान दो प्रकार का होता है १. स्वार्थानुमान तथा २. परार्थानुमान । स्वार्थानुमान एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है इसमें पञ्चाचयव की आवश्यकता नहीं पड़ती है। परार्थानुमान में पञ्चात्रयव वाक्य की आवश्यकता पड़ती है इसे 'न्यायवयव' भी कहते हैं- उनके नाम हैं- प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन । प्रतिज्ञा में शब्द प्रमाण का, हेतु में अनुमान प्रमाण का उदाहरण में प्रत्यक्ष प्रमाण का और उपनय में उपमान प्रमाण का समावेश होता है। निगमन से एक अर्थ के साधन में सभी प्रमाणों के योगदान का प्रदर्शन होता है। वात्स्यायन ने न्यायदर्शन के प्रथम सूत्र के भाष्य में पंचावयव वाक्य के सन्दर्भ को इसप्रकार वर्णित किया है"साधनीयार्थस्ययावतिशब्दसमूहे सिद्धिः परिसमाप्यते, तस्य पञ्चावयवाः प्रतिज्ञादयः 80
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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