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________________ प्रमा को जानने के साधन को प्रमाण कहते हैं- 'प्रमायाः कारणं प्रमाणं ।' न्यायसूत्रकार ने अपने ग्रन्थ में लिखा है १. प्रत्यक्ष 'प्रत्यक्षानुमानोपमान शब्दाः प्रमाणानि।' (न्या० सूत्र १/१/३) अर्थात् प्रत्यक्षप्रमिति का कारण षड्विधिसन्निकर्षा दिव्यापार से मुक्त करण (इन्द्रिय) को प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं। भारतीय दर्शन में प्रत्यक्ष एक अकेला ऐसा प्रमाण है जो निविर्वाद रूप से आस्तिक और नास्तिक दोनों दर्शनों को मान्य है। प्रत्यक्ष की परिभाषा न्याय सि० मुक्तावलीकार ने इस प्रकार दिया है- इन्द्रिय जन्यं ज्ञानं प्रत्यक्षं । अर्थात् इन्द्रिय जन्यत्वे सति ज्ञानत्वं प्रत्यक्ष प्रमायाः लक्षणम् । इन्द्रिय से उत्पन्न होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमा कहते हैं। न्यायसूत्र में महर्षि गौतम ने प्रत्यक्ष की परिभाषा इस प्रकार किया है-प्रत्यक्ष इन्द्रियार्थ सन्निकर्षोत्पन्न न ज्ञान है जो अव्यपदेश, अव्यभिचारि और व्यवसायात्मक होता है।' अन्नंभट्ट ने तर्कसंग्रह में प्रत्यक्ष को इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान बताया है- 'इन्द्रियार्थ-सन्निकर्षजन्यं ज्ञानं प्रत्यक्षम् ।' प्रत्यक्ष की दो अवस्थाएं होती है- १. निर्विकल्पक, २- सविकल्पक। निर्विकल्पक ज्ञान की प्रथम अवस्था है जिसमें भान होता किन्तु सकिल्पज्ञान में निश्चित रूप से वस्तु का पूरा ज्ञान होता है। प्रत्यक्ष दो प्रकार का होता है- १- लौकिक प्रत्यक्ष, २ अलौकिक प्रत्यक्ष। लौकिक प्रत्यक्ष- यह भी दो प्रकार का होता है- १. वाह्य, २. मानस। वाह्य प्रत्यक्ष-पंचज्ञानेन्द्रियों से चक्षु, रसना, घ्राण, त्वक, श्रोत के सन्निकर्ष से उत्पन्न होता है। मानस में आत्मा और मन का अर्थात् आत्ममनः संयोग से होता है। अलौकिक प्रत्यक्ष- यह प्रत्यक्ष तीन प्रकार का होता है 1 इन्द्रियार्थ सन्निकर्पोत्पन्नं ज्ञानम् अव्यपदेश्यम् अव्यभिचारी व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् (न्यायसूत्र १/१/४) तर्कभाषा पृ० १८ 3 श्री विश्वनाथ पञ्चानन भटटाचार्य विरचिता, न्या० सि० मु०, व्याख्याकार, डा० श्री गजानन शास्त्री मुसलगांवकर, पृष्ठ २८३। 79 .
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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