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________________ सत्ता मीमांसीय सिद्धान्त का सर्मथन करें, किन्तु ज्ञाता की तत्त्व मीमांसीय प्रधानता या केन्द्रीयता को कोई भी उपेक्षित नहीं कर सकता है। इस दर्शन में चेतना को सर्वोपरि असंदिग्ध सत् स्वीकार किया गया है। इसके अस्तित्व में न कभी शंका की जा सकती है। और न कभी इसे असिद्ध किया जा सकता है। तर्क के लिए यह नितान्त मानना आवश्यक है। कि हम चेतना या आत्मा को अपना निकटतम एवं परात्पर तत्त्व मानें। उसका कभी विस्मरण या अभाव न हो सकना ही इस दर्शन को अजेय शक्ति प्रदान करता है। ___ इसके अतिरिक्त परमसत् को निर्विकार और स्वतंत्र तथा स्वप्रकाश रूप स्वीकार करना निःसन्देह सत् को शुद्ध संभवन स्वरूप अथवा सब परिवर्तनों और विकारों को उसके अर्न्तगत मानते हुए उसे पूर्ण और निर्विकार बताने की अपेक्षा कहीं अधिक तर्क संगत है। सत् को शुद्ध संभवन या परिवर्तन रूप यदि माना जायेगा तो वह किसी अन्य वस्तु के अधीन या आश्रित हो जायेगा और संभवन की अपेक्षा वही वस्तु अधिक सत् होगी। परिवर्तनशील और अपरिवर्तनशील के इस भेद का यह भी अर्थ होगा कि पहला भ्रामक तथा दूसरा सत् है। यदि सत् को पूर्ण और संभवन स्वरूप दोनो लक्षणों से सम्पन्न मानें तो इसमे स्पष्ट आत्मव्याघात होगा। सत् का आत्माश्रित होना नितान्त आवश्यक है इसलिये वह कूटस्थ भी होगा ही शङ्कर ने अपने ब्रह्म विषयक सिद्धान्त में सत् विषयक यही सिद्धान्त स्वीकार किया है। इसी कारण से 'शङकर दर्शन' अन्य सभी दर्शनों से परम सत् के सम्बन्ध में अधिक सत्यनिष्ठ दिखाई देता है। किन्तु यदि सत्य को कूटस्थ और अपरिवर्तनीय माना जाता है तो सगंत विचार यही निर्णय प्रस्तुत करेगा कि परिवर्तन असत् होना चाहिए। किन्तु शङ्कर ने तर्क की रक्षा करते हुये उसे असत् घोषित किया है। फिर भी संभवन के आभास का प्रश्न उठता ही है यदि संभवन को सत् या असत् मान भी लिया जाय तो उसे आत्माश्रित कहा ही नहीं जा सकता है। 365
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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