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________________ मिश्रण करके सुरेश्वराचार्य को प्रतिभासिक, व्यवहारिक एवं परमार्थिक सत्ताओं का समर्थक सिद्ध किया था। श्री सुरेश्वराचार्य के साक्षात् शिष्य होकर भी सर्वज्ञात्ममुनि प्रतिबिम्बवाद के पक्ष में है और आभासवाद को नहीं स्वीकार करते है। इस प्रकार सुरेश्वराचार्य के वार्तिक प्रस्थान में छ: तत्वों को अनादि माना जाता है- जीव, ईश्वर, शुद्ध चैतन्य, जीवेश्वर भेद, अविद्या और शुद्ध चैतन्य अविद्या सम्बन्ध ।' वाचस्पति मिश्र अवच्छेदवाद के द्वारा ब्रह्म और जीव के सम्बन्ध की व्याख्या करते है। ब्रह्म निरस्तोपाधि जीव है और जीव अविद्योपाधि ब्रह्म है। अवच्छेदवाद के समर्थकों ने “आकाश के उदाहरण द्वारा इसे अधिक स्पष्ट किया है। जिस प्रकार एक ही आकाश को सांसारिक लोग घट एवं मठ के सम्बन्ध से घटाकाश एवं मठाकाश कहकर पुकारते है उसी प्रकार एक ही ब्रह्म जीव की अविद्योपाधि के कारण ससीमता एवं अविच्छिन्नता को प्राप्त होता है। अविद्या प्रत्येक जीवमठ में आश्रित रहती है। यथा घट एवं मठ रूपी उपाधियों के समाप्त हो जाने पर घटाकाश-मठाकाश आदि भेद नष्ट हो जाते है उसी प्रकार अविद्योपाधि के हट जाने पर जगत में परिलक्षित होने वाले भेद हट जाते है और मात्र ब्रह्म ही शेष रह जाता है। अवच्छेदवादी के मत में अन्तःकरण-अविच्छिन्न चेतन ही जीवात्मा है। इस मत में जीव घटाकाश के समान तथा ब्रह्म महाकाश के समान है। अपने मत के समर्थन में अवच्छेदवादी “अंशोनाना व्ययदेशात” (ब्रह्मसूत्र २/३/४३) यह सूत्र प्रस्तुत करता है। जीव की अविद्योपाधि के कारण अनवच्छिन्नं एवं असीम ब्रह्म अवच्छिन्नता एवं ससीमता को प्राप्त होता है। उपनिषदों में भी यत्र-तत्र जीव को ब्रह्माग्नि के स्फुलिंग के रूप में वर्णन किया गया है। इस प्रकार अवच्छेदवाद मान लेने पर ब्रह्मजीव में उपास्यउपासक भाव भी बन सकता है। 'जीव ईशो विशुद्धा चित् तथा जीवेशयोर्भिदा। अविद्या तच्चितोर्योगः षडस्यकामनादयः ।। (यह श्लोक परम्परा से आचार्य सुरेश्वराकृत माना जाता है) 353
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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