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________________ सम्बन्ध में न तो विचारशील मनोवृत्ति बना पाता है। और नहीं उसे इसकी आवश्यकता अनुभव होती है। "धर्म" शब्द का अर्थ वस्तुतः कर्तव्य, सत्यकर्म या गुण होता है। व्युत्पत्ति की दृष्टि से "धर्म" शब्द 'ध्' शब्द से निष्पन्न है जिसका अर्थ है "धारण करना" अर्थात वह जो धारण करता है, या किसी वस्तु का अस्तित्व बनाये रखता है वही धर्म है। महाभारत के कर्ण-पर्व में धर्म के विषय में उल्लिखित है -"धारणादधर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजा" अर्थात मानव की एक सार्वभौम प्रवृत्ति है और मानव ही एक मात्र धार्मिक प्राणी है। __भारत में धर्म का आविर्भाव ही व्यक्ति की लौकिक एवं परलौकिक उन्नति के लिये हुआ। वैशेषिक सूत्र में इस प्रकार परिभाषित किया गया है। "यतो अभ्युदय निःश्रेयस सिद्धिः स धर्मः' अर्थात धर्म जीवन की वह विधा है जिससे अभ्युदय (इहलोक मे उन्नति) और निःश्रेयस (मोक्ष) दोनो ही मिले। इस तरह से धर्म मानवीय अर्थ या अन्वेषण के उस रूप को कह सकते है जो जीवन का लक्ष्य लोकोत्तर और परमचैतन्य की स्थिति की प्राप्ति को या परमचैतन्य के बोध की योग्यता प्रगति को स्वीकार करता है। किन्तु यह ध्यातव्य है कि भारत में कभी भी दर्शन धर्म का दास नही रहा है। यहां दर्शन और धर्म में पृथक्करण रहा है किन्तु नितान्त सम्बन्ध विच्छेद कभी भी नहीं रहा । भारत में जीवन की प्रगति में सहायक होना ही दर्शन और धर्म को सम्बद्ध करता है। इसलिये भारतीय दर्शन सम्पूर्ण मानवता को दुःखो से मुक्ति दिलाने के लिये सदा प्रयत्नशील रहा है। इसलिये भारत में व्यक्ति के परमलक्ष्य के रूप में मोक्ष की जो प्रतिष्ठा प्राप्त हुई थी वह कहीं-कहीं दुःख निवृत्ति मात्र है तो कही दुःख निवृत्ति के साथ-साथ आनन्द प्राप्ति की भी अवस्था है। इसलिये भारतीय विचारको ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह को मानव का आचरण घोषित किया। जैन दर्शन
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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