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________________ ग्रहण करने के उपरान्त ही गुरु की आज्ञा से कई अद्वैत पोषक ग्रन्थों का प्रणयन किया । संयोगवश एक दिन सुरेश्वराचार्य ने आचार्य शंकर को षाष्टांग प्रणाम करते हुए निवेदन किया- 'हे महान गुरु! मै जिस प्रकार आपकी लक्ष्य प्राप्ति में सहायक हॅू उसे पूरा करने के लिए सब तरह से तैयार हूँ। आप मुझे निःसंकोच आज्ञा प्रदान कीजिये । सुरेश्वराचार्य की प्रार्थना सुनकर आचार्य शंकर बहुत प्रसन्न हुये और बोले'वत्स! तुम मेरे शारीरिक भाष्य पर सुन्दर वार्तिक की रचना करो ।' सुरेश्वराचार्य ने कहा प्रभो तर्कयुक्त गंभीर वाक्य सम्पन्न आपके भाष्य को समझने की शक्ति तो मुझमें नहीं है फिर भी आपकी कृपा से मैं यथाशक्ति ग्रन्थ रचना करने की पूर्ण चेष्टा करूँगा । आचार्य ने अपनी स्वीकृति दे दी। किन्तु आचार्य के अन्य शिष्यों को जब यह बात मालुम हुयी तो उन्होंने इसका विरोध किया । वे आचार्य के पास पहुंचकर उनसे निवेदन किया- भगवन! आप सुरेश्वराचार्य से अपने भाष्य पर वार्तिक लिखा रहे है पर इससे आपका अभीष्ट सिद्ध नही होगा। क्या कुछ ही दिन पहले सुरेश्वर प्रबल मीमांसक नही थे? उन्होंने मण्डन मिश्र के रूप में मीमांसा के कर्मकाण्ड का प्रतिपादन किया। उन्होंने इस बात पर बहुत अधिक जोर दिया कि समस्त वेदों का लक्ष्य कर्म के प्रतिपादन में है। कर्म करने से ही स्वर्ग की प्राप्ति होती है। कर्म ही फलदाता है। कर्म के अतिरिक्त ईश्वर कोई वस्तु नहीं । हे प्रभो ऐसे कर्मकाण्डी द्वारा आपके भाष्य पर वार्तिक लिखना आपके अद्वैतपरक भाष्य के सर्वथा प्रतिकूल होगा क्योंकि उसमें वैदिक कर्मकाण्ड की प्रधानता रहेगी । अतः सुरेश्वराचार्य की वार्तिक रचना आपके अद्वैत सिद्धान्त पर कुठाराघात के समान सिद्ध होगी। हम लोग आपका ध्यान आपके योग्यतम शिष्य पद्मपाद की ओर आकृष्ट करना चाहते हैं । आप इनकी भी पहले परीक्षा ले चुके हैं आपने प्रसन्न होकर सनन्दन से पद्मपाद नाम 280
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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