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________________ स्वतंत्र स्थान रखता था। किन्तु पश्चिमी देशों में अपने विकास के पूर्ण यौवन काल मे भी, जैसे प्लेटो और अरस्तू के समय में इसे राजनीति अथवा नीति शास्त्र जैसे किसी अन्य विषय का सहारा लेना पड़ा। मध्यकाल में इसे 'परमार्थ विद्या' के नाम से जाना जाता था, 'वेकन और न्युटन' के लिये यह प्राकृतिक विज्ञान था और उन्नीसवीं शताब्दी के विचारकों के लिये इसका गठबन्धन इतिहास राजनिति एवं समाज-शास्त्र के साथ रहा । भारत में दर्शन-शास्त्र आत्मनिर्भर और स्वतंत्र रहा है तथा अन्य सभी विषय प्रेरणा और समर्थन के लिये इसका आश्रय ढूढते हैं। भारत में यह प्रमुख विज्ञान है जो अन्य विज्ञानो के लिये मार्ग दर्शक है। क्योंकि बिना तर्क-ज्ञान के आश्रय के वे सब खोखले और मूर्खतापूर्ण समझे जाते है। मुण्डकोपनिषद् में 'ब्रह्मविद्या' (नित्यविषयक ज्ञान) को अन्य सब विज्ञानों का आधार, सर्वविद्या प्रतिष्ठा कहा गया है। कौटिल्य का कथन है "दर्शनशास्त्र (आन्वीक्षिकी दर्शन) अन्य सब विषयों के लिये प्रदीप का कार्य करता है। यह समस्त कार्यों का साधन और समस्त कर्त्तव्यकर्मो का मार्गदर्शक है।" ऐतिहासिक परम्परा में यदि हम जैन-बौद्ध काल की प्रणालियों का अवलोकन करें तो पाते हैं कि उस समय दार्शनिक चिन्तन के क्षेत्र में प्रगति हो रही थी। और यह किसी प्रबल आक्रमण के कारण ही संभव होती है। बौद्ध तथा जैन धर्मो के विप्लव ने भारतीय विचारधारा के क्षेत्र में एक विशेष ऐतिहासिक युग का निर्माण किया है क्योंकि उस समय ब्राह्मण धर्म आदि की कट्टरता से जो अव्यस्था उत्पन्न हो गयी थी इस कुव्यवस्था को दूर कर एक समालोचनात्मक दृष्टिकोण विकसित किया। महान बौद्धविचारको के लिये तर्क ही एक ऐसा साधन था जो समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर कर सकता था। इस तरह से बौद्ध धर्म ने मस्तिष्क को प्राचीन व्यवधानो के पीड़ादायी प्रभावों से मुक्त करने मे विरेचन का काम किया। 'डा० राधाकृष्णन-भारतीय दर्शन
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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