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________________ सारांशतः स्पष्ट है कि भारतीय दार्शनिक जीवन को आध्यात्मिक, अधिभौतिक अधिदैविक दुःखों से परिपूर्ण मानकर ही दर्शन में प्रवृत्त होता है और दुःख निवृत्ति का मार्ग भी खोज निकालता है "दुःख त्रयाभिघाताज्जिज्ञासा तदघातके द्वेतौ " (सं० का० द्ध) इस प्रकार भारत वर्ष में दर्शन का अनुशीलन बड़ी गंभीरता एवं सजगता से किया गया है। मनुष्य इस सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है और उसकी श्रेष्ठता का आधार है उसकी बौद्धिक क्षमता "बुद्धिर्यस्य बलं तस्य” अर्थात् जिसके पास बुद्धि है उसी के पास बल है। इस सत्य तथ्य के अनुसार सभी प्राणियों से अधिक बुद्धिमान होने के कारण वह सबसे बलवान भी होता है और बुद्धिबल के कारण वह सम्पूर्ण जगत का शासक बनने की इच्छा करता है। तथा इसी आंकाक्षा से इसकी सारी गतिविधियाँ परिचालित होती हैं। "जानाति, इच्छाति, यतते" या ज्ञान से इच्छा और इच्छा से प्रयत्न। इस प्रकार मनुष्य के सम्पूर्ण प्रवृत्ति चक्र का मूल है। उसके अपने आपके अस्तित्व की धारणा। क्योंकि सभी मनुष्यों की यह स्वाभाविक धारणा है कि उसका अपना एक अस्तित्व होता है। और शेष सारा संसार उसी के लिये है। प्रत्येक मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह अपने आत्म-तुष्टि के लिये ही कुछ करता है तो सर्वप्रथम आवश्यक है कि हम क्या है? हमारी अथवा मनुष्य मात्र की वास्तविकता क्या है? मनुष्य क्या है? उसे कोई वस्तु क्यों चाहिये? हम क्या हैं? हमारे लिये क्या अपेक्षणीय है? इस प्रकार के उपर्युक्त विचार से ही हमारे देश मे दार्शनिक चिन्तन का आरम्भ हुआ और यह चिन्तन ही हमारे देश की लोकशिक्षा, सामाजिक संचरना और शासनिक व्यवस्था का आधार बना । डा० राधाकृष्णन ने लिखा है- "प्राचीन भारत में दर्शन का विषय किसी अन्य विषय अथवा कला के साथ जुड़ा हुआ न होकर सदा ही अपने आप में एक प्रमुख और
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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