SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ही पर्याप्त हो सकता है। क्योंकि इसके विपय में महत्वपूर्ण कथन है कि यह अकेले ही मुमुक्षुओं को परमपद की प्राप्ति करा सकता हैं। इस ग्रन्थ में चार प्रकरण है। उनमें क्रमशः २६, ३८, ४८, १०० इस प्रकार कुल मिलाकर २१५ कारिकाएं है। प्रथम प्रकरण आगम प्रकरण है। इस प्रकरण में सम्पूर्ण माण्डूक्योपनिषद् की व्याख्या हुई है और साथ ही जगदुत्पत्ति के अनेक प्रयोजनों का वर्णन और उनका खण्डन किया गया है। कुछ लोग सृष्टि का हेतु भगवान को मानते है, कुछ लोग काल से भूतों की उत्पत्ति मानते है, कोई भोग के लिए सृष्टि स्वीकार करते है, कोई क्रीड़ा के लिए जगत की उत्पत्ति मानते है। भगवान कारिकाकार इन सभी पक्षों को अस्वीकार करते है- देवस्यैष स्वभावोऽयमाप्तकामस्य का स्पृहा' (१/६)। अर्थात् पूर्णकाम भगवान को सृष्टि का कोई प्रयोजन नहीं है। यह तो उनका स्वभाव ही है। अतः यह जो कुछ प्रपञ्च है वह वास्तव में है नहीं, केवल बिना हुआ ही भास रहा है। सि.न्त- प्रणव की उपासना- 'प्रणव' से तात्पर्य 'ओम' शब्द से है। मा० का० में'प्रणवो ब्रह्म निर्भयम्' (मा० का० १-२५) 'प्रणव' ही अपर ब्रह्म है। ओंकार ही अपरब्रह्म माना गया है। वह ओंकार अपूर्व, अतवाहय शून्य, अकार्य तथा अव्यय है। 'प्रणवो हवयपरं ब्रह्म प्रणवश्च परः स्मृतः। अपूर्वोऽनन्तरंऽवाहृयोऽनपरः प्रणवोऽव्ययः ।। (मा० का० ०१-२६) प्रवण ही सबके हृदय में स्थित ईश्वर है। इस प्रकार सर्वव्यापी ओंकार को जानकर बुद्धिमान पुरुष शोक नही करत– 'सर्वव्यापिनमोंकारं मत्वा धीरो न शोचति।' जिसको ओंकार के अर्थ का भली-भांति ज्ञान हो जाता है वही मुनि है और कोई पुरुष नहीं है- 'अमात्रोऽनन्तमात्रश्च द्वैतस्योपशमः शिवः। ओंकारों विदितो येन स मुनिर्नेलरो जनः।। (मा० का० १-२६) 227
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy