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________________ तो सत्य है किन्तु यह भी सत्य है कि स्थूल और सूक्ष्म दोनो प्रकार के पदार्थ दर्शन शास्त्र के विषय हैं और परम तत्त्व की प्राप्ति के लिये दोनो का साक्षात्कार आवश्यक हैं। इसलिये चार्वाक, न्याय वैशेषिक आदि स्थूल दृष्टि वाले दर्शनो में स्थूल पदार्थों के तथा सांख्य, योग, वेदान्त आदि सूक्ष्म दृष्टि वाले दर्शनों में सूक्ष्म पदार्थ को देखने के लिये जो उपाय बताये गये हैं उसे 'प्रज्ञाचक्षु' 'ज्ञानचक्षु' आदि नामों से सम्बोधित किया जाता है। इस प्रकार दर्शन में दोनों प्रकार के चक्षुओं की आवश्यकता होती है। सूक्ष्म पदार्थो को देखने के लिये सूक्ष्म नेत्रों की तथा स्थूल वस्तुओं को देखने के लिये स्थूल नेत्रों की। यही कारण है कि उपनिषदो मे 'दृश्' धातु का ही प्रयोग किया है और यही भाव भारतीय दर्शन के 'दर्शन' शब्द में भी है। चाक्षुष प्रत्यक्ष के अभाव में किसी भी विषय का निश्चय रूप से ज्ञान संभव नहीं है। इस प्रकार दार्शनिकों ने दर्शन शब्द का असाधारण या विशिष्ट अर्थ ही स्वीकार किया है। दर्शन दृश्यावलोकन नहीं है, अपितु तत्त्वावलोकन है, इसलिये इसे तत्त्वदर्शन भी कहते हैं। परम तत्त्व और चरमसत्य मे अभेद रखने वाला ही दार्शनिक है। डा० वी० एन० सिंह-डा० आशा सिंह ने भारतीय दर्शन नामक अपनी पुस्तक में लिखा है कि दर्शक केवल दो आँखों (चक्षुओं) से देखता है। दार्शनिक को तृतीय नेत्र (दिव्यदृष्टि) होती है। जिससे वह तत्वबोध या सत्योपलब्धि करता है। तीसरा नेत्र तो दिव्यचक्षु है जिससे अनन्त और अपार का बोध होता है। साधारण आँखों से मनुष्य असीम और शान्त वस्तुओं को देखता है, परन्तु असीम और अनन्त के रहस्योद्घाटन के लिये असाधारण (अलौकिक) आन्तरिक (दिव्य) दृष्टि की आवश्यकता है। सत्य की प्राप्ति में एक मात्र सहायक की भूमिका आन्तरिक दृष्टि ही होती है। क्योंकि संसार में सत्य असत्य से आवृत्त या ढंका है। इस आवरण को अनावृत करना ही आन्तरिक दृष्टि (दर्शन) का कार्य है। वेद के एक मंत्र में सत्य के अनावृत होने की क्रिया को एक रूपक द्वारा स्पष्ट किया गया है
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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