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________________ कार्य ब्रह्म ग्रहण किया है। अपने मत की पुष्टि में आचार्य का कथन है कि ब्रह्मसे यहां परब्रह्म का अर्थ नहीं लिया जा सकता है। क्योंकि परब्रह्म स्वर्ग है प्रत्यगात्म स्वरूप ब्रह्म है इसलिए उसमें गन्ता गन्तव्य और गति आदि की भेद व्यवस्था संभव नहीं है। इसीलिये छान्दोग्योपनिषद के उक्त वाक्य में वादरि ब्रह्म शब्द से 'कार्य ब्रह्म' का अर्थ स्वीकार किया है चतुर्थ स्थल में मुक्त पुरुष के ऐश्वर्यानुभूति को लक्ष्य कर जिज्ञासा की गई कि उस अवस्था में युक्त पुरुष के शरीर-इन्द्रिय आदि रहते हैं, अथवा नहीं? अचार्य बादरि का मानना है कि मोक्ष अवस्था में मुक्त परुष के शरीर इन्द्रिय आदि का अभाव रहता है। छान्दोग्योपनिषद (८।२।१) में ही मुक्त पुरुष के वर्णन के प्रसंग में कहा गया है कि 'संकल्पादेवस्यपितरःसमुत्तिण्ठन्ति' अर्थात् मुक्त पुरुष के संकल्प से ही पितृगण उठ जाते हैं। आचार्य वादरि का विचार है कि ईश्वर भावापन्न विद्वान के शरीर तथा इन्द्रियों की सत्ता नहीं रहती है। इसलिए छान्दोग्योपनिषद में कहा गया है 'मनसा एतान कामान पश्यन रमते' (१२५) "य एते ब्रह्मलोके" (छा० उप० ७/१२/१)। इस प्रकार ब्रह्मसूत्र एवं मीमांसा सूत्र दोनों में आचार्य वादरि के मतों का विवेचन होने से स्पष्ट होता है कि आचार्य वादरि वेदान्त के ही समर्थक रहे हैं। ___इस प्रकार आर्ष परम्परा के आचार्यों में देखते हैं कि आत्रेय और जैमिनि कर्मज्ञान समुच्चय वादी थे। रामानुजी विद्वान सुदर्शन सूरि ने लिखा है कि आश्मरथ्य भेदा–भेदवाद को मानते थे। जैमिनि और कर्णाजनि के मत में साम्य है। काश्यप आर्ष परम्परा के आचार्यों में काश्यप भी एक महत्त्वपूर्ण आचार्य हैं। यद्यपि काश्यप का नामोल्लेख ब्रह्मसूत्रों में नहीं है परन्तु आचार्य शाण्डिल्य के भक्ति सूत्र' में 'शाडिल्य का भक्तिसूत्र । तामैश्वर्यपरा काश्यप- परत्वात्- २६ 194
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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