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________________ कि सच्चे निष्काम कर्मी को न तो पशु बनना है, न जड़, न हृदयहीन। वह तामसिक नहीं बल्कि विशुद्ध सात्विक होता है। उसका हृदय प्रेम और सहानुभूति से इतना ओत-प्रोत होता है कि वह अपने प्रेम से समूचे विश्व को एक सूत्र में बाँध सकता है। धर्म के विभिन्न मार्गों का समन्वय और निःस्पृह या निष्काम कर्म ये गीता की दो प्रमुख विशेषताएं हैं। कर्मयोगी के लिये स्वकर्म ही स्वधर्म है। भगवान कृष्ण ने कहा है कि सभी वर्गों के कर्म निश्चित हैं। ईश्वर सभी कर्मों से आसक्त नहीं है फिर भी इस प्रकार का कथन (वक्तव्य) करने के बावजूद समाज के वर्ग विभाजन को पवित्र करने के लिये ईश्वर का आह्वान किया गया है। "चातुर्वर्ण्य मया सृष्टि गुण कर्म विभागशः ।" अपने जन्म के अनुसार मनुष्य को जो कर्तव्य पूरे करने हैं उससे मनुष्य को कभी भागना नहीं चाहिये। भले ही इसके लिये हिंसा अथवा अप्रिय कार्यों का मार्ग अपनाना पड़े। क्षत्रिय का कर्तव्य जहां युद्ध करना निश्चित किया गया है वहां शूद्रों का कर्तव्य ब्राह्मण और क्षत्रियों की सेवा करना था। गीता का अध्ययन करने से पता चलता है कि तत्कालीन चातुर्वर्ण्य व्यवस्था वर्गहीन, आदिम, कबीली समाज से आगे बढ़ा हुआ कदम था। बर्बरता से सभ्यता की ओर समाज को आगे बढ़ाने वाली ऐतिहासिक आकांक्षा को ही गीता ने स्वयं परमात्मा द्वारा प्रणीत बताकर, उसे आदर्शपूर्ण बना दिया। यह शायद उस समय के समाज की महती आवश्यकता भी थी। कारण यह कि आदिम वर्गहीन समाज से वर्गवाले समाज में रूपान्तरण तथा वर्णाश्रम व्यवस्था के सुदृढ़ीकरण को शक्तिशाली प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा था। निष्काम कर्म ही कर्मयोग है, कर्म सकाम और निष्काम के भेद से दो प्रकार का है। सकाम कर्म जो है इसके करने से बन्धन उत्पन्न होताहै। निष्काम कर्म करने से बन्धन का उच्छेद होता है। सकाम कर्म फलाकांक्षा के वशीभूत होकर करते हैं और उसी के अनुसार शुभ और अशुभ परिणाम को भोगता है। तथा श्वेता० में इस प्रकार के 166
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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