SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महर्षि दयानन्द यह मानते हैं कि उपनिषदों में ब्रह्म को संसार का रचयिता कहा गया है। इसी ब्रह्म से समस्त महाभूत उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होकर उसी में तिरोहित हो जाते हैं। अर्थात् प्रलयावस्था में नष्ट होकर ब्रह्म के गर्भ में अव्यक्तावस्था में चले जाते हैं। 'यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते... यत्प्रयत्यभिसंविशान्ति ।' ( तैत्तिरीय उपनिषद) सत्य तो यह है कि उपनिषदों में सृष्टिरचना का वर्णन जिस रूप में किया गया है वह विशुद्ध यथार्थवादी है। महर्षि दयानन्द के अनुसार आचार्य शङ्कर के मायावाद का सिद्धान्त उपनिषदों में प्राप्त नहीं होता है किन्तु जो 'माया' शब्द उपनिषदों में आया है वह आचार्य शंकर की माया नहीं है बल्कि (यहा) 'माया' का अर्थ- 'प्रकृति' है । श्वेताश्वेतरोपनिषद में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि 'माया को प्रकृति ही जानों । " सांख्यदर्शन में वर्णित 'प्रकृति' और उपनिषदों की 'माया' एक ही प्रतीत होती है। यही कारण है कि सांख्य दर्शन प्रकृति परिणामवाद को हमेशा श्रुतिसम्मत बतलाता है‘श्रुतिरपिप्रधानकार्यत्वस्य' (सां० सू० ५ / २) परन्तु इतना अवश्य कहा है कि ब्रह्म नित्यों का नित्य है अर्थात् जीव और प्रकृति इन नित्य तत्वों का जो स्वामी है वह अनादि ब्रह्म है।' इस प्रकार उपनिषदों में एकेश्वरवाद का ही मुख्य रूप से प्रतिपादन किया गया है। उपनिषदों द्वारा वेदों को ही प्रमाण मानना - सभी उपनिषदें वेद को ही प्रमाण रूप में स्वीकार करती हैं न कि वेदों का खण्डन करती हैं। क्योंकि कठोपनिषद में कहा गया है कि 'जिस अक्षर पर ब्रह्म को प्राप्त करने का सभी वेद उपदेश देते हैं उसी ब्रह्म को जानों—– ‘सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति । (कठोपनिषद् २ / १५) | मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है कि उस परमात्मा का मुख अग्नि है, चन्द्रमा और सूर्य उस परमात्मा के दो चक्षु हैं श्रोत दिशाएं हैं तथा ऋग्वेदादि चारों उस परमात्मा की वाणी हैं। वेदों के विषय में ' मायां तु प्रकृति विहान्मायिनं तु महेश्वरम् । तस्यावयव भूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत | | ( श्वेता० ४ / १०) ' नित्यो नित्यानां चेतनाश्वेतंनानामेको बहूनां यो विदयतिकामान्। (श्वेता० ६ / ३) 152
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy