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________________ से देखता रहता है।' इस उदाहरण से यह स्पष्ट होता है कि इन जीव और ब्रह्म में से एक जो जीव हैं वह वृक्षरूपी संसार में पाप-पुण्य, शुभ-अशुभ रूप फलों को सुचारू रूप से भोगता है और इसके विपरीत दूसरा परमात्मा कर्मों के फलों को न भोगता हुआ अपने चारों ओर अर्थात् भीतर बाहर सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा है। इससे स्पष्ट होता है कि उपनिषदों में भोक्ता रूप में जीवात्मा और भोग्या प्रकृति तथा इन पर शासन करने वाला 'ब्रह्म' का वर्णन पाया जाता है । उपनिषदों में भी ब्रह्म को सर्वत्र विभु, सर्वशक्तिमान सृष्टि रचयिता, पालनकर्ता एवं संहर्ता के रूप में उद्धृत किया गया है। इसके विपरीत जीवात्मा अल्पशक्ति वाल अणु तथा परिच्छिन्न है । जीवात्मा कर्म करने में तो स्वतंत्र है किन्तु कर्म का फल भोगने में परतन्त्र है । उपनिषदों में द्वैतवाद का समर्थन जो श्रुतियां करती है उनको अद्वैतवादी यह कहकर प्रबल रूप से समर्थन करते हैं कि ये व्यवहारकाल की श्रुतियां हैं। उपनिषदों में इस तरह का संकेत नहीं है। जिज्ञासा होने के कारण यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या उपनिषदों में सृष्टिरचना का वर्णन नहीं है। यदि सृष्टि का वर्णन है तो मिथ्या क्यों कहा जाय । इसके बाद फिर परमार्थ और व्यवहार का भेद क्यों माना जाय । आचार्य शंकर ब्रह्म को समझाने के लिये इस जगत का सहारा लेते हैं और फिर बाद में कहते हैं कि संसार " मिथ्या है और ब्रह्म सत्य है, यह कैसे हो सकता है। अर्थात् मिथ्या जगत से परमार्थिक सत्ता कैसे सिद्ध की जा सकती है? वस्तुतः व्यवहारिक स्तर पर जो अद्वैतवादी भेद मानते हैं उससे दयानन्द की यथार्थवादी विचारधारा को ही सहारा (बल) मिलता है । ་ द्वा सुपर्णा सुयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्व जाते । तयोरन्य पिप्पलंस्वाद्वगत्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ।। (मु० उ० ३/१/१) 151
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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