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________________ १. वितर्कानुगत २. विचारमुगत ३. आनन्दानुगत ४. अस्मितानुगत। चौथे अस्मितानुगत समाधि में ही विवेक ख्याति का उदय होता है और 'धर्ममेध समाधि' भी इसे कहा जाता है। यह जीवनमुक्त की अवस्था होती है। असम्प्रज्ञात समाधि यह सम्प्रज्ञात समाधि की साध्यभूता समाधि है- इसका लक्षण'विरामप्रत्ययअभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः' (योग सूत्र १/१८) में बताया गया है। यह विदेह मुक्ति की अवस्था होती है। यह दो सोपानों में होती है १- भव प्रत्यय असम्प्रज्ञात समाधि। २- उपाय प्रत्यय असम्प्रज्ञात समाधि । योग दर्शन का कैवल्य सांख्य के कैवल्य या अपवर्ग जैसा ही है। प्रतिकूल वेदनीय दुःख से छुटकारा प्राप्त करना ही कैवल्य है। योग के अनुसार 'पुरूषार्थ शून्य गुणों का प्रतिप्रसव तथा पुरूष का अपने स्वरूप में अवस्थापन मोक्ष है- 'पुरूषार्थ शून्यानां गुणानांप्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति । (४/३३ कैवल्यपाद) पुरुष के अपने स्वरूप में अवस्थिति हो जाने पर बुद्धि भी मुक्त हो जाती है और पुरूष भी- 'तदाद्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्' (योग सूत्र १/३)। योगदर्शन समाधि में सिद्धि के लिये ईश्वर को आवश्यक मानता है। इसका वर्णन योगसूत्र में १/२४, १/२५, १/२६, १/२७, १/२८, १/२६ में किया गया है। ईश्वर एक पुरूष विशेष है जो सर्वथा मुक्त है- 'क्लेशकर्म विपाकाशैः परामृष्टः पुरूषविशेष ईश्वरः ।' यो० सू० (१/२४) ईश्वर का वाचक शब्द प्रणव अथवा ओङ्कार है। योग साधना में ईश्वर का महान उपयोग यह है कि उसकी भावना करने और उसके नाम का जप करने से योगमार्ग के सारे विघ्न दूर हो जाते हैं और साधक को 'तस्यवाचकः प्रणव यो० सू० (१/२७) 109
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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