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________________ - মৃধীনমন डोलतसुकन्दमदमत्त पति, गुणपथिक आवतहरै। वैरागखमाबांधनर, मनमतकविचरतबुरै ॥ ६७ ॥ शब्दार्थ टोका ( महावत हाथीदान [ सुमति ] उत्तममति (सांकल ) बजेर गह) रगड़कर [ घडै ) तोड़े ( अंकुश ) लोहे का औजार जिससे हाथी हांक तेहैं ( ब्रह्महत ) शोमवृत्त ( विइण्डै ) तोड़े ( सिद्धान्त ) आमज्ञानशास्त्र ( मर ) तलाव (बेल ) किलोल ( अघ ) पाप ( रज) मिट्टी [करण कान (कुमति ) खोटीमति ( करणी ) च्यना ( रति ) रचना (सुहन्द) वैरोक आजाद मनमौजी { मद ) मान डोर । मत्त ) मस्त (पथिक'. वटेज (खभ ) सतून टेक [ सतङ्ग) हाथो (विचरत ) चलत (दुरै) दुरा। सरलार्थ टोका ज्ञानरुप हाथीवान को डालकर सुमतिरुप सकिल की रगड़कर तोड़े है और गुरुरूप अशको नही मानकर उस हतरुप हक्ष को तो है और सिद्धान्तरूप ताबको हानि कर है पापरूप धूलमों किलोल कर है और चपलता रूप कान धरैहै और कुमतिरूप हथनीसों रोचे है और अ पने जोर में मस्त होकर रोक फिरहै गुणरु प बटेऊ जिसके सामने आ ताहुआ डर है ईनर ऐसे मनरूप हस्तीको वैराग्यरुप खम्भ से बांध किस कारण मनरूप हस्ती का विचरना बुरा है। गुरु उपकार कथन
SR No.010174
Book TitleBhudhar Jain Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Kavi
PublisherBhudhardas Kavi
Publication Year
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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