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________________ भूधरजनशतक. ( कश्चन ) सौना ( कुम्भ) कलश-घट ( उपमा) तस्मता ( उरोजन) कु च-छातो [ बार ) बाले अनजान-मूख ( शाम ) काला ( मशिनोलक ) नीलम् जवाहर ( ढकनी ) चपनी सरपोश ( ठकारे) टकदिये (सत वैन ) सच्चेबचन (कुपण्डित ) खोटे पहित ( युग ) दो २ जोड़ा (श्रा मित्र) मांस ( पिण्ड) गोला ( उधारे) प्रत्यक्ष [ बार] राख । सरलार्थ टौका मूर्ख कवि कुचौकी सोनेके कलशों से उपमा देते हैं और जपर कालाप न देखकर नीलक मणिको ढकनी ढकीहुई कहते हैं ऐसे सत बचन कु पण्डित क्यों नहीं कहते कि ये दोनों कुच दो पिण्डे मांस के प्रत्यक्ष है और साधोंने जो मोह रूप राख इनपर भारदई है इस कारण कुच क छु काले होगये हैं। বিঘানাম্বীনদাৰ জুবিলিল্ডাল मत्तगयन्दछन्द हेबिधि भूल भई तुमः सम, मे न कहां कसरि बनाई। दौन कुरङ्गन के तनमै तिन, दन्त धर क रुणा नहि आई । क्यौंन करी तिन जीमन जेरस, काव्य करें परको दुखदाई। साथ अनुग्रह दुर्जन दण्ड दु, जसधते विसरी चतुराई. ॥ ६६ ॥ .
SR No.010174
Book TitleBhudhar Jain Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Kavi
PublisherBhudhardas Kavi
Publication Year
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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