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________________ ४४ भिपकम-सिद्धि इसी प्रकार दोप के साथ साथ धातु का भी जान करने की आवश्यकता चिकित्सा मे सुकरता लाने के लिए पडती है। जैसे सभी विषम ज्वर विदोप होते है । उनके आश्रय गत धातु का भी ज्ञान हो जाये तो दोनो पर क्रिया करने वाली ओपधि का उपयोग किया जा सकता है। जैसे 'मन्ततोरम रक्तस्थ मोन्येयुः पिगिताश्रित.' इत्यादि । इसी प्रकार स्नायुमर्मास्थि मधियो में भी दोप की गति के ज्ञान की अपेक्षा रहती है । इसमे भी चिकित्सा में मौकर्य आता है। जैसे कि सुश्रुत ने लिखा है । स्नायु एवं मर्म स्थानो के व्रणो में अग्नि कर्म न करे । नाग्निकर्मोपदेष्टव्यं स्नायुममंत्रणेपु च । आम एवं निराम भेद ने भी हेतु के दो प्रकार किये गये है । बाम-जाठराग्नि या पाचकाग्नि की दुर्वलता से, आदि धातु रम का परिपाक उत्तम नही होता । यह अपक्व रस आमाशय मे रहता है और 'आम' कहलाता है । इस नाम से वातपित्त एव कफ त्रिदोप तथा रक्तादिदूप्य दूपित हो कर 'माम' कहलाते है । परिणामस्वरूप दोप दूप्य मम्मूर्च्छना जन्य' होने वाली व्याधियाँ भी इनमे संयुक्त होकर आम कहलाती है। साम रोगो में निम्नलिखित लक्षण मिलते है-त्रोतसावरोध ( मलमूत्र मंग स्वेदावरोध), बल हानि, गौरव, वायु की मूटता (रुकावट या अप्रवृत्ति), आलस्य, भोजन का परिपाक न होना, लालास्राव, मल की अति प्रवृत्ति, अरुचि, क्लम ( थकावट)। इसके विपरीत लक्षण निराम व्याधियो मे पाये जाते है । ऊष्मणोऽल्पवलत्वेन धातुमाद्यमपाचितम् । दुष्टमामाशयगतं रसमामं प्रचक्षते ।। आमेन तेन संयुक्ता दोपा दूष्याश्च दूपिताः। सामा इत्युपदिश्यन्ते ये च रोगास्तदुद्भवाः॥ स्रोतोरोधवलभ्रंशगौरवानिलमूढताः। आलस्यापक्तिनिष्टीवमलमेदारुचिलमाः ।। लिगं मलानां सामानां निरामाणां विपर्ययः । (वा० सू० १३) यह आम जिस स्थान पर रहता है, गरीर मे स्वकारण कुपित जिस दोप से दूपित रहता है उस दोप के तोद, दाह, गौरव आदि लक्षणो के साथ आम जनित स्रोतोवरोधादि लक्षणो से कप्ट उत्पन्न करता है यत्रस्थमाम विरुजेत्तमेव देशं विशेषेण विकारजातैः । दोपेण येनावततं शरीरं तल्लक्षणैरामसमुद्वैश्च ।।
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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