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________________ भिपकर्म-सिद्धि परन्तु कई वार दोप अपने नियत आशय स्थान मे स्वय प्रकुपित न होते हुए भी अन्यत्र जा सकते है-इसे आशयापकर्प कहा जाता है । रोगोत्पादन में दोष यहाँ पर भी कारण होता है-इस दोप को आगयापकृष्ट दोप कहते है । मधुकोप में विजयरक्षित ने कहा है "जब वायु उचित मान एव स्थान में स्थित किमी दोप को लेकर अन्यत्र जाता है तो शरीर मे उचित मान में होते हुए भी वह दोप उस स्थान पर विकारोत्पत्ति करता है।" इस कथन की पुष्टि मे उन्होने चरक का निम्न वचन उद्धृत किया है। 'प्रकृतिस्थं यदा पित्तं मास्तः श्लेष्मणः क्षये । स्थानादादायगापु यत्र यत्र प्रसर्पति ।। तदा भेदश्च दाहश्च तत्र तत्रानवस्थितः । गात्रंदेशे भवत्यस्य श्रमो दौवल्यमेव च । (च० मू० १७) इस अवस्था में चिकित्सा मे विगुण वात का गमन तथा स्थानान्तरित दोप का स्वरथान में लाना ही युक्तियुक्त एव गास्त्रसम्मत चिकित्सा है। जिन चिकित्सा को दोपो के स्थानापकर्प नामक सिद्धान्त का ज्ञान नहीं है वह ऐनी अवस्था मे दाहादि लक्षणो को देखकर रोग में पित्त की वृद्धि समझ कर पित्त का ह्रासन करते हुए रोग मै अन्य रोग पैदा कर रोगी का अनिष्ट कर सकती है। ऐसा भट्टार हरिचन्द्र का मत है। इस विपय में विपरीत पक्ष के कुछ आचार्यों का कथन है कि सर्व शरीरव्यापी पित्त जब वायु के द्वारा सिंचें जाकर अन्य अवयवो के पित्त के साथ मिलता है तो उन अवयवो मे पूर्व से विद्यमान पित्त इम स्यानाकृष्ट पित्त के साथ मिलकर अधिक हो जाता है । फलत स्थानापकर्पजन्य दुष्टि भी पित्तवृद्धिजन्य ही होती है वातजन्य नहो । क्योकि पित्तज दुष्टि के न होने पर पित्तजन्य होने वाले लक्षण दाह, पाक, मूर्छा, भ्रम आदि की उपलब्धि असभव है, क्योकि कारण के अभाव में कार्य का अभाव होता है। यह भी सत्य है कि उचित मात्रा में स्थित दोप विकारकारी नही हो सकता । अत दाहादि मे पित्तवृद्धि की कल्पना करना स्वाभाविक है। भट्टार हरिचन्द्र ने इस पक्ष का खण्डन और पूर्वपक्ष का मण्डन करते हुए लिखा है कि, यद्यपि यह कयन ठीक है, परन्तु यह कथन भी ठीक है कि रोगोत्पत्ति दोपो की स्यानच्युति से भी होती है । परन्तु अज्ञानवश ही ऐमा कथन किया गया है-ऐसी अवस्था में 'विरेकः पित्तहराणा' इस सिद्धान्त के आधार पर इस अवस्था में रेचन कराना हानिप्रद होने से सवया अनुपयुक्त एव निपिद्ध है। ऐसे रोगो मे स्थानान्तरित पित्त का स्वस्थानानयन ही उपयुक्त चिकित्सा है। स्थानान्तरित पित्त और वृद्धपित्त की चिकित्सा मे परस्पर यही भेद भी है । इसी
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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