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________________ ६६० भिपकर्म-सिद्धि सहज और मर्म च्छेदज क्लैब्य असाध्य है, किन्तु गेप चार प्रकार के क्लच हेतुविपरीत चिन्मिा तथा बाजीकर योगो के प्रयागो से ठीक हो जाते है। अन्तु, इन चतुर्विध क्लयों में भी वाजीकरण की सतत आवश्यकता पड़ती है । "योपित्यसंगाक्षीणाना क्लीवानामल्लरेतसाम् । हिता वानीकरा योगाः प्रीणयन्ति बहुप्रदाः ॥ (भा. प्र.) वाजीकरण के अभाव मे दोष-वाजीकरण के अभाव में स्त्री के वगी भूत होकर मैथुन करने से ग्लानि, कम्प, बवमाद (मिथिलता), कृगता, इन्द्रियों की मीणता, गोप, श्वास, उपदंग, ज्वर, अर्ग, भगन्दरादिक गुदा के रोग, रस-रक्तादि धातुओ की क्षीणता, भयङ्कर बात रोग, क्लीयता और लिङ्ग भग ( ध्वज भग) यादि उपद्रव होते हैं । इसलिये कामी पुरुषो को नित्य वाजीकरा योगों का सेवन करना चाहिये । ग्लानिः यो वनादत्तदनु कृशता क्षीणता चेन्द्रियाणां शोपीच्यायोगदावर गुदजगढा क्षीणता सर्वधातौ ॥ जायन्ले दुनिवाराः पचनपरिमगः लीवता लिङ्गभगो वाग च्यातियोगाद् भजत इह सदा गजिक्रमांच्युतत्य ।। (मै र.) ब्रह्मचर्य तथा वाजीकरण-अब यहाँ शका पैदा होती है कि बायुर्वेद उहाँ पर ब्रह्मचर्य तथा शुक्ररक्षण की भूरि-भूरि प्रशंना करता है-आहार, स्वप्न तया ब्रात्र को तीन जीवन न मानता है वहीं पर कामपणा की तृप्ति के लिए वाजीकरण नन्त्र का उमका उपदेश कहां तक युक्तिमगन है। इसका समाधान यह है कि वस्तुन इन दोनो विचारो में कोई विरोध नहीं है। विधिपूर्वक गम्य म्बिगे में और ऋतु काल में किया गया मैथुनविहित कम है और वह निष्टि नहीं है । इस प्रकार का विहित मैथुन कर्म ब्रह्मचर्य या शुक्र संरक्षण का सहाय मृत नग होता है । इनमें मदेह नहीं कि ब्रह्मचर्य एक अधिक महत्त्व का मात्रण है । यह धर्म के अनुकूल माचरण है। इसके द्वारा यम की प्राप्ति, वायु की वृद्धि, उहलोक तथा परलोक में रसायन ( उपकारक ) गुणो की प्राप्ति होनी है । नर्वण निर्मल ब्रह्मचर्य वा गाम्न सदैव अनुमोदन करता है। परन्तु बहाई का अनुष्ठान स्त्र के लिये सरल नहीं होता है। यह बड़ी ही कठिन ताम्ग है। फारम ब्रह्मचर्य का बन्न होना ही स्वाभाविक है। ऐसी स्थिति में ग्नि प्रकार हम अपने नामपणावा भी कि बने हुए स्वस्थ रहकर दीर्घायुप्त भी प्राप्ति करने है। एतद ही वाजीकरण विद्या का वाचार्यों ने उपदेग किया है। नए में ऐसा कहा जा सकता है कि ब्रह्मचर्य का धारण तो निर्विवाद
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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