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________________ चतुर्थ खण्ड : तैतीसवॉ अध्याय ५५७' इस गण की औषधियाँ मूत्रकृच्छ्र, मूत्राघात, अश्मरी मे लाभप्रद, शीतवीर्य एवं पित्तशामक होती है । , ७ ऊपकादि गण - क्षारयुक्त मृत्तिका, पुष्प काशीस, शुद्ध गुग्गुलु, शुद्ध शिलाजीत, भाग में बने योग को ऊपकादि गण कहते है के रूप में सेवन करना कफ रोग, मेदो वृद्धि, रहता है । सेधा नमक, हीग, धातु काशीस, शुद्ध तुत्थ | इन औषधियो के सम इन औषधियो का क्वाथ या चूर्ण अश्मरी तथा मूत्रकृच्छ्र मे लाभप्रद | ८ ताम्रघट मे रखे हुए वासी पानी के साथ मुसली का कल्क ३ माशे अथवा इन्द्रायण की जड़ का चूर्ण १ माशा पोस कर लेने से भी अश्मरी का भेदन होता है । अश्मरीभेदक अन्य योग - गोखरू, तालमखाना, छोटी कटेरी, बड़ी कटेरी, एरण्ड मूल । सम भाग मे लेकर ६ माशे चूर्ण मीठे दही के साथ सेवन करना । इसका एक सप्ताह तक प्रयोग करने से अश्मरी का भेदन होता है । " १ १० कुलत्थ यूष भी अश्मरीभेदक होता है । अश्मरी ११. कुन्दुरू का स्वरस - विम्बी पत्र या मूल का स्वरस या कषाय शूल मे लाभप्रद होता है । १२ हरिद्रा और गुड प्रत्येक अश्मरीभेदक होता है । १३ बन्व्या होता है । १४. वरुणाद्य लौह-वरुण की छाल और आँवले का चूर्ण ८-८ तोला, धाय का फूल ४ तोला, हरड का चूर्ण २ तोला, पृश्निपर्णी का चूर्ण-लोह भस्म और अभ्रक भस्म प्रत्येक १ तोला । सब औषधियो को घोट पोस करके शीशी मे भर ले | इस योग को २ माशा की मात्रा मे तृण पंचमूल के क्वाथ के साथ, शहद से या केवल जल से सेवन करने से भयंकर मूत्राघात, मूत्रकृच्छ्र तथा अश्मरी रोग में लाभ होता है । १ तोला काजी के साथ पीस कर सेवन कर्कोटिका कन्द मधु के साथ अश्मरीभेदक अश्मरीहर कपाय -- पाषाणभेद, सागौन के फल, पपीते की जड, शतावर, गोखरू वीज, वरुण की छाल, कुशमूल, कासमूल, धान का मूल, पुनर्नवामूल, गिलोय, अपामार्गमूल, खीरा का बीज प्रत्येक समभाग । जटामासी १ मूलं श्वद्रष्ट्र क्षुरको रुवूकात् चीरेण पिष्ट वृहतीद्वयाच्च । आलोड्यय दध्ना मधुरेण पेय दिनानि सप्ताश्मरिभेदनार्थम् ॥
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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