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________________ भिपकर्म-सिद्धि अश्मरी प्रतिषेध-अश्मरी रोग में श्लेष्म दोप की प्रधानता है। यह वृक्क में पैदा होकर कई स्थानो पर पडी गरीर में मिल सकती है, जैसे--वृक्क, गवीनी अथवा मूत्रागय । अश्मरी रोग अधिकतर शस्त्रकर्म-साध्य है तथापि कुछ अवस्थावो मे औषवि के प्रयोग से लाभ की भाशा रहती है। ऐसे योगो का उल्लेख नीचे दिया जारहा है। अश्मरी मे वातिक लक्षणो की प्रमुखता हो तो वृतपान कराने से लाभ होता है, औपधियो में वरुणादि गण का उपयोग, पित्तसदृश लक्षण मिले तो पाषाणभेद का उपयोग और श्लेष्माधिक्य का चिह्न मिले तो क्षार का उपयोग करना चाहिये । सामान्य योग--१. वरुणादि कषाय-वरुण को छाल, सोठ, गोखल वीज, मुसली, कुलथी, कुश-कास-गर-दर्भ एवं इक्षुमूल। इनको सम प्रमाण में लेकर २ तोले को ३२ तोले जल में खोलाकर चौथाई गेप रखकर २ तोले देशी चीनी और यवक्षार १ माशा मिलाकर पिलाना। २ वरुण अथवा गिग्रु का कपाय गुड के साथ मिलाकर सेवन । ३ एलादि क्वाथ-छोटी इलायची, पिप्पली, मुलेठी, पापाणभेद, रेणुका, गोखरू, अडूसा, एरण्डमूल । इनको समभाग में लेकर २ तोले को ३२ तोले जल मे खोलाकर चौथाई गेप रहने पर छानकर मुख गिलाजीत ४ रत्ती, ६ माशे मधु और १ तोला शक्कर मिलाकर सेवन । ४. गोखरू वीज-गोखरू वीज का चूर्ण ६ माशे और मधु १. तोला मिलाकर वकरी या भेंड के दूध के साथ सेवन करना । एक सप्ताह तक इसके प्रयोग से अश्मरी का भेदन होता है।' ५. वाकुची वीज ३ माशे, वरुण की छाल ३ माशे रात में किसी मिट्टी के पात्र म भिगो कर सुवह मसल कर पानी को छान कर पीने से अश्मरी का भेदन होता है । इस योग का उपयोग पित्ताश्मरी में भी लाभप्रद रहता है। ६ वोरतरादि गण-शर की जड, नील तथा पीत पुष्प वाला सैरेयक (पियावासा ), दर्भ, दृक्षादनी ( वादा), नरसल, गिलोय, कुश, कास, पापाणभेद, ईख की जड, सोनापाठा, कटसरैया, सूर्यमुखी या हुरहुर, अगस्त्य की छाल, बरणी, नीलोत्पल, गोखरू तथा कपोतवक्त्रा ( इलायची या काकमाची) दशमूलीशृतं पीत्वा सशिलाजतु गर्करम् । वातकुण्टलिकाप्टोलावातवस्तो प्रमुच्यते ।। (यो. र.) १. विकण्टकस्य वीजाना चूर्ण माक्षिकमंयुतम् । अजाक्षीरेण सप्ताह पेयमरमरिभेदनम् ।। (सु)
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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