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________________ भिपकर्म-सिद्धि २ निदान दो प्रकार का हो सकता है। १ सन्निकृष्ट ( समीप का ) तथा २ विप्रकृष्ट ( दूर का)। इसमे इनके बलावल के अनुसार व्याधि में भेद पाया जाता है। कई वार सन्निकृष्ट का निदान विप्रकृष्ट निदान से भिन्न स्वरूप का रोग पैदा करता है। इसमे सन्निकृष्ट और विप्रकृष्ट कारणो के वल का भेद होता है। यदि सन्निकृष्ट निदान विप्रकृष्ट से बलवान् हुआ तो व्याधि सन्निकृष्ट निदान के अनुसार होगी, परतु कही विप्रकृष्ट निदान सन्निकृष्ट से प्रवल हुआ तो रोग विप्रकृष्ट कारण के अनुसार होगा। जैसे निकटवर्ती निदान ज्वर का है और दूरवर्ती निदान ऊरुस्तभ का । ऐसी अवस्था मे यदि विप्रकृष्ट निदान सन्निकृष्ट से प्रबल हुआ तो रोगो मे ज्वर न पैदा होकर अरुस्तंभ होगा । उदाहरण 'हेमन्ते निचित. श्लेष्मा वसन्ते कफरोगकृत' इस सूत्र मे हेमन्त ऋतु मे कफ का सचय होना विप्रकृष्ट हेतु (दूर का कारण ) और वसन्त ऋतु तथा प्रात काल या शीत का लगना सन्निकृष्ट हेतु कहलाता है इनमे दोनो के बलावल के अनुसार विविध रोगो का होना सभव है। कई एक दूसरे सूत्र का उदाहरण ले-'हेमन्ते निचित श्लेष्मा वसन्तेऽर्कतापित कफरोगकृत्' । इस मूत्र मे कफ का रोग पैदा करनेवाले दो कारण दिये गये है। १ हेमन्त ऋतु का सचित कफ यह विप्रकृष्ट हेतु है और २ अर्कताप या सूर्यताप यह दूसरा सन्निकृष्ट हेतु है। यद्यपि सन्निकृष्ट हेतु सूर्यसताप से पित्त का कोप होना चाहिये परन्तु विप्रकृष्ट हेतु की प्रबलता समीपस्थ हेतु को दबाकर कफ की उत्पत्ति करती है जिससे वसन्त ऋतु मे कफज रोग होते है। यहाँ पर चिकित्सा भी कफ की करनी होती है, पित्त की नही । यहाँ वास्तविक निदान प्रत्यक्ष न होने से पूर्वरूप, रूपादि के अभाव मे व्याधि का मिथ्या ज्ञान होने की सम्भावना रहती है। अत , व्याधि के यथावत् ज्ञान के लिये केवल निदान मात्र का ज्ञान होना ही पर्याप्त नही है। उसके लिये पूर्वरूप-रूपादि का भी जानना आवश्यक होता है। इसीलिये वाप्यचद्र का कथन है कि 'तस्मात्केवलान्निदानादपि न व्याविज्ञान भवतीतिपूर्वस्पादीनामुपादानम् ।' पूर्वरूप ज्ञान का चिकित्सा मे प्रयोजन-'सचयेऽपहृता दोपा लभन्ते नोत्तरा गती । ते तूत्तरासु गतिपु भवन्ति बलवत्तरा ।' (सुश्रुत ) । यदि पूर्वरूप का कथन रोगो के सम्बन्ध मे न किया जावे तो पूर्वरूप की अवस्था मे वणित किये गये उपचार भी सभव न हो सकेगे। आचार्य सुश्रुत ने बतलाया है कि सचयकाल में ही दोपो के निकाल देन से विकार आगे को नही वढता और न रोग
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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